आज बात उत्तर
पश्चिम दिल्ली के
शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा का अधिकार की. कहने के लिए तो दिल्ली देश की राजधानी है मगर यहां ऐसा कुछ विशेष खासकर शिक्षा के मामले में तो नहीं ही दिखता है. माफ कीजिए यहां हम निजी विद्यालयों की बात नहीं कर रहे. निजी विद्यालय तो आज मध्यम वर्ग के लिए गले की फांस बन चुके हैं. निजी विद्यालय शिक्षा अब नहीं देते बल्कि वह व्यवसाय करते हैं. बच्चों की लाखों की फीस एक मध्यमवर्गीय परिवार की कमर तोड़ने के लिए काफी है. हालत यह है कि एक ओर जहां लोग चाहकर भी सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चों को डालना नहीं चाहते तो वहीं दूसरी तरफ व्यवसायिक हो चुके शिक्षा व्यवस्था में निजी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाना बेहद ही चुनौतीपूर्ण हो चुका है. आइए उत्तर पश्चिम दिल्ली के शिक्षा व्यवस्था का हाल समझने से पहले हम इसे राष्ट्रीय स्तर पर देखने की कोशिश करते हैं.
कमजोर शिक्षा नीति को गरीबी की चादर ओढ़ कर न देखें
हर एक बच्चा बढ़े, हर एक बच्चा पढ़े. एक समान शिक्षा सभी बच्चों का अधिकार होना चाहिए मगर भारत इससे कोसों दूर है. भारत के सुदूर गांव की अगर हम बात ना भी करें तो देश की राजधानी दिल्ली की भी हालत कोई खास ही अच्छी नहीं है. ऊंची ऊंची इमारतों के तले काम करते मजदूरों के साथ में लगे उनके छोटे-छोटे बच्चे जिनकी उम्र पढ़ने की है वह भी आपको वहां आसानी से दिख जाते हैं. इनमें से तो कई ऐसे भी हैं जिन्हें पढ़ने की इच्छा तो होती है मगर फिर भी वह पढ़ाई नहीं कर पाते. कारण गरीबी... न न न, माफ कीजिए मुझे यह कहते शर्म आ रही है कि गरीबी को हमने एक पैमाना बना लिया है बीच में लाने का. यहां कमजोरी हमारी शिक्षा नीति की है, कमजोरी हमारे सरकार की है. गरीबी बस एक नाम का अभिशाप भर है.
आम बजट में शिक्षा को लेकर कुछ अलग करने की कोशिश
वर्ष 2017-18 के लिए प्रस्तुत किए गए आम बजट में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ विशेष पहल करने की बात कही गई. इसके मूल आधार को दुरुस्त करने की भी बात इस आम बजट में झलकी जो कि एक अच्छा कदम माना जा सकता है. प्रस्तुत किए गए
आम बजट में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के लिए 43896.04 करोड़ रुपए तो वहीं उच्च शिक्षा के लिए 33329.70 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा है. इस बार पिछले आम बजट के मुकाबले प्राथमिक शिक्षा के लिए 2460.21 करोड़ रुपए तो वहीं उच्च शिक्षा के लिए 3626.50 करोड़ रुपए ज्यादा का प्रावधान किया गया है. इस बजट में सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं पर विशेष ध्यान केंद्रित किया है. इनमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्वायत्तता, उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए राष्ट्रीय टेस्टिंग एजेंसी का गठन, माध्यमिक शिक्षा के लिए इनोवेटिव फंड का निर्माण, सालाना लर्निंग आउटकम की रूपरेखा तैयार करना और स्वयं योजना के अंतर्गत डीटीएच के माध्यम से लोगों को उच्च शिक्षा उपलब्ध कराना शामिल है.
आम बजट को दूसरे नजरिए से भी देखने की जरूरत
शिक्षा कभी मुख्य मुद्दा बन ही नहीं पाई
इस तरह की दोहरी नीति समझ से परे है. हमारी सरकारें चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की यहां तक कि हम सभी यह जानते हैं कि विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. विद्यालयों में कहीं
शौचालय नहीं है, तो कहीं पानी की कमी है, कहीं बैठने की व्यवस्था नहीं है, तो कहीं शिक्षक ही नहीं है. वैसे में इतने सालों से यह स्थिति क्यों नहीं बदली? हमने बदलना ही नहीं चाहा. शिक्षा
राजनीतिक मुद्दों में केंद्र का कभी विषय ही नहीं बन सकी. राजनीति व नीति के स्तर पर यह भले ही जुबानी प्रतिबद्धता का विषय बन जाता है मगर क्रियान्वयन की प्रतिबद्धता का नहीं बन पाता.
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2005 से जारी किया जाता रहा है. इसके रिपोर्ट्स में किए गए सर्वे द्वारा यह पता चलता है की पांचवी क्लास में पढ़ने वाले बच्चें दूसरी कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं. आठवीं के विद्यार्थियों को जोड़ना, घटाना, भाग देना तक नहीं आता. तीसरी कक्षा के 42.3 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा एक की किताबें पढ़ पाते हैं. क्लास आठ में पढ़ने वाले 73.1 प्रतिशत विद्यार्थी ही कक्षा दो की सामग्री पढ़ पाने में सक्षम हैं. क्या ऐसी स्थिति भारत को शर्मसार नहीं करती? हमने शिक्षा को बाजार बना दिया है. एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के चौंकाने वाले तथ्य के बावजूद हम आज भी
भारत में सौ रुपए में से सिर्फ 25 पैसे निगरानी और निरीक्षण पर व्यय करते हैं और मात्र 40 पैसे शिक्षकों के प्रशिक्षण पर खर्च किया जाता है.
नहीं सुनी जाती शिक्षा सुधार को लेकर बनी समितियों की सिफारिशें
आजादी के महज दो वर्ष बाद 1949 में खेर कमेटी का गठन किया गया. शिक्षा सुधार को लेकर कमेटी ने सिफारिश की थी केंद्र अपने आय का 10 फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करें.
1966 में शिक्षा सुधार को लेकर ही बनाई गई कोठारी आयोग ने यह सिफारिश की थी कि सरकार को अपने जीडीपी का 6 फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना चाहिए.
1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी कहा गया था कि सरकार को अपने राष्ट्रीय आय का 6 फ़ीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना चाहिए.
1996 में सैकिया कमेटी ने भी कहा कि सरकार को शिक्षा में जीडीपी का 6% खर्च करना चाहिए.
टेंट में चल रहें हैं स्कूल
आइए लौटते हैं उत्तर पश्चिम दिल्ली की ओर. नरेला उत्तर पश्चिम दिल्ली का एक उपमंडल है.
नरेला में स्थित सर्वोदय कन्या विद्यालय नंबर- दो दूर से तो आम विद्यालयों जैसा ही लगता है मगर जब आप इसका निरीक्षण करेंगे तो आपको पता चलेगा यहां पर टेंट में बच्चियों को पढ़ाया जाता है. इन बच्चियों का क्लासरूम यह टेंट ही है. मगर चौंकिए नहीं यह इनकी अच्छी किस्मत है कि इन्हें यह नसीब हो रहा है वरना उत्तर
पश्चिम दिल्ली के कई अन्य विद्यालयों में ऐसे हजारों विद्यार्थी पढ़ रहे हैं जिन्हें यह टेंट भी नसीब नहीं होता है. कुछ विद्यालयों की बिल्डिंग्स इस तरह जर्जर हालात में है कि उसे खतरनाक घोषित किया जा चुका है बावजूद इसके वहां अभी भी विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है.
खुले आसमान तले होती है पढाई
दिल्ली के इसी जिले में भलस्वा डेरी के गवर्नमेंट को एड विद्यालय का हाल भी ऐसे ही बुरे हालात में है. पहले विद्यालय में 8 कमरे हुआ करते थे और आठवीं क्लास तक ही विद्यालय था जिसे बाद में दसवीं तक कर दिया गया. इससे परेशानी और बढ़ी अतिरिक्त कमरे तो ना बन पाए और ना ही टीचर की व्यवस्था हुई बल्कि पहले से ही ज्यादा विद्यार्थियों के होने के बावजूद इसमें और अधिकता आ गई. जिसके कारण बच्चों को बाहर बिठाकर पढ़ाया जाता है. कादीपुर और मुबारकपुर डबास मैं भी विद्यालयों के ऐसे ही हालत है. मुबारकपुर डबास में हर कक्षा में शिक्षकों के मुकाबले बच्चों की संख्या कई गुना ज्यादा है. कमरे टूटे हुए हैं और विद्यार्थियों को खुले में बैठना पड़ता है. कादीपुर में भी ऐसी ही समस्या है विद्यार्थियों के लिए बैठने को बेंच नहीं है और ना ही पीने के पानी का इंतजाम है.
शिक्षा व्यवस्था की वास्तविकता का पोल खोल
नौजवान भारत सभा और जागरूक नागरिक मंच ने उत्तर पश्चिम दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में वर्ष 2016 के दौरान सर्वेक्षण किया तो पाया कि यहां स्थिति बेहद ही खराब है. नवीं और 11वीं के वार्षिक परीक्षा परिणाम ने उत्तर पश्चिमी दिल्ली के साथ-साथ दिल्ली की सरकारी शिक्षा व्यवस्था की वास्तविकता का पोल खोल कर रख दिया. कई राजकीय माध्यमिक विद्यालयों में एक ही कक्षा के 100 से भी अधिक छात्र-छात्राएं फेल थे. सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि शिक्षक और विद्यार्थियों का अनुपात कहीं ज्यादा है. तो वही पीने के पानी की सुचारु व्यवस्था नहीं है. शौचालय का रखरखाव भी अच्छा नहीं है, तो कहीं शौचालय भी नहीं है. शिक्षक गायब रहते हैं. बैठने की व्यवस्था नहीं है, विद्यालय जर्जर हालत में है. कमरे की कमी के कारण बच्चों को परेशानियां होती हैं. ऐसे ही कई और समस्याएं हैं जिससे बच्चे काफी असंतुष्ट दिखे.
पूरी शिक्षा नीति और ढांचे में बदलाव की जरूरत
ऐसे में हम कैसे बेहतर भारत की कल्पना कर सकते हैं. जब हमारी बुनियादी कच्ची हो तो हम उस पर इमारत कैसे खड़ी करेंगें. हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था इस कदर जर्जर हो चुकी है कि बेहतर शिक्षा के उद्देश्य को पूरा ही नहीं किया जा सकता. सिर्फ बजटीय प्रावधान कर देने से या कुछ विद्यालयों को मॉडल के तौर पर प्रस्तुत कर देने भर से ही हमारा शिक्षा तंत्र बेहतर नहीं हो पाएगा. जरूरत है इस पर गंभीरता से विचार करने की. इसके कारणों की समग्रता से पड़ताल कर पूरी शिक्षा नीति और ढांचे में बदलाव करने की. हमें इस कड़वी सच्चाई से अवगत होना ही पड़ेगा कि हम कई देशों से शिक्षा क्षेत्र में बहुत ही पीछे हैं.
बेहतर शिक्षा शिक्षा व्यवस्था सबकी जिम्मेदारी
यह सरकार के साथ-साथ सभ्य समाज की भी जिम्मेदारी है कि वह इस दिशा में आगे बढ़े और हमारे शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए मिलकर कदम बढ़ाए. तभी हम बेहतर कल की उम्मीद कर सकते हैं. बेशक हमारे सामने शिक्षा के क्षेत्र में ढेर सारी चुनौतियां है मगर इससे निपटने की भी जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं हम सब की भी है. आज सभ्य समाज के साथ नेताओं को इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है. हमारे नेता और हमारे समाज के लोग मिलकर ही एक सतत शिक्षा प्रणाली का विकास कर सकते हैं. इस रिसर्च में हम उत्तर पश्चिम दिल्ली में होने वाले शिक्षण तंत्र से जुड़े कार्यों का अवलोकन करेंगे. समस्याओं और उनके समाधान जो स्थानीय तौर पर लाए जा रहे हैं उन पर ध्यान देते हुए उनकी संभावनाओं की तलाश करेंगे. जिससे उत्तर पश्चिम दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था सुधरे. आज हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो स्वत: ही इस दिशा में आगे बढ़ काम करने के लिए सामने आए और समाज के लिए एक प्रेरणा का काम कर सके.