आज जब हम आजादी से अबतक भारत की स्थिति देखते हैं तो हमारे मन में यह सवाल जरुर आता है कि हमने देश के विकास के लिए क्या किया है? इतने सालों में क्या बदला है? मगर आज जब हम आगे यानी भविष्य के बारे सोचते हैं तब हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न आता है आने वाली पीढ़ी का. वाकई यह किसी देश के लिए बहुत ही अहम है कि उसकी आने वाली नस्ले कैसी बनेगी. एक बेहतर पीढ़ी का निर्माण बेहतर कल का सूचक होता है और उसी बेहतर कल के लिए जरूरी है बेहतर शिक्षा व्यवस्था का होना. इसिलए जरूरत है देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने की. हर किसी को बेहतर शिक्षा दी जा सके उसके लिए प्रयास करना बेहद जरुरी है.
बात आज पूर्वी दिल्ली के शिक्षा व्यवस्था की.
जनगणना 2011 के मुताबिक पूर्वी दिल्ली की साक्षरता दर दिल्ली के दूसरे जिले से सबसे बेहतर है.
इसकी साक्षरता दर 89. 31% है, जबकि उत्तर पूर्वी दिल्ली की सबसे कम 83.09% है. वैसे तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को कुल नौ जिले में बांटा गया है, दिल्ली के सभी जिलों की साक्षरता दर 80% से ज्यादा ही है. बावजूद इसके आज यह सोचने की जरुरत है कि हमारे देश के एक छोटे से राज्य केरल में देश की राजधानी से ज्यादा साक्षरता दर है. यही नहीं हमसे कई छोटे देश भी साक्षरता दर में कहीं आगे हैं. एंडोरा, फिनलैंड, ग्रीनलैंड, नॉर्वे जैसे कई देश हैं जिनकी साक्षरता दर 100 प्रतिशत है.
दिल्ली जिले का साक्षरता दर :-
उत्तर पश्चिम दिल्ली – 84.45 %
दक्षिण दिल्ली - 86.57 %
पश्चिमी दिल्ली - 86.98 %
दक्षिण पश्चिम दिल्ली - 88.28 %
उत्तर पूर्वी दिल्ली - 83.09 %
पूर्वी दिल्ली - 89.31 %
उत्तर दिल्ली - 86.85 %
मध्य दिल्ली - 85.14 %
नई दिल्ली - 88.34 %
दिल्ली में सबसे ज्यादा साक्षरता दर 89. 31% पूर्वी दिल्ली में है मगर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है.
आप त्रिलोकपुरी देख लीजिये या कल्याण पूरी चले जाइये, मंडावली से लेकर आनंद विहार, न्यू अशोक नगर सभी जगह पूर्वी दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था का बुरा हाल है. यहाँ सुबह होते ही बच्चे आपको स्कूल की तरफ जाते नहीं दीखते.
वे काम की तलाश में या काम करने होटलों की तरफ या दुकानों की तरफ जाते दीखते हैं. पूर्वी दिल्ली के ऐसे कई इलाके हैं जहां लाखों लोग गरीब तबके से हैं. उनमें से कईयों को दो जून की रोटी के लिए काफी मशक्त करना पड़ता है तो कईयों को वह भी नसीब नहीं हो पाता. अब ऐसे में यह अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने का ख्वाब तो देख नहीं सकते मगर साथ ही यह उनका दाखिला सरकारी स्कूलों में भी नहीं कराते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा के साथ साथ मिड डे मील के तौर पर दोपहर का भोजन भी दिया जाता है. आप इन्हें समझाकर देखिये इनका जवाब आपको निराश करेगा, उनका कहना होता है कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर क्या करेंगे, काम करेंगे तो घर में पैसा आएगा.
अब समझने वाली बात यह है कि जब पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों की ऐसी तस्वीर है तो 89. 31% का साक्षरता दर का आंकड़ा कहां से आया? क्या साक्षर होने का मतलब अपना नाम लिख लेने भर से ही पूर्ण हो जाता है? आप समाज को किस तरह से शिक्षित होते देखना चाहते हो? सुन्दर भविष्य की, देश के आगे बढ़ने की कल्पना क्या हम इस प्रकार के शिक्षा व्यवस्था देकर पूरी करेंगे. आज सरकार के साथ साथ समाज को भी इस दिशा में सोचने की जरूरत है.
भारत के संविधान निर्माण के समय दसवीं तक मुक्त शिक्षा दिए जाने के प्रावधान को लेकर बातें की गई थी मगर तब हमारे कुछ नेताओं ने पैसे की कमी का हवाला देकर इसे लागू किए जाने से रोक दिया. तब से अभी तक शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा सरकार का बजट पैसों की कमी पर आकर अटक जाता है. तब हमारी सरकार, हमारे नेता एक प्रगतिशील फैसला लेने से चूक गए और बाद की सरकारें भी कभी वैसा हौसला नहीं दिखा सकी.
मगर सवाल दीमक लगे शिक्षण तंत्र में क्या इतना हो जाना ही काफी है?
मुझे सन् 2012 की रिपोर्ट याद आती है जिसमें दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट में यह कहा था कि जब
सरकार ने शहर भर में 961 स्कूल खोल रखे हैं तो दूसरे लोग पब्लिक स्कूलों की ओर क्यों भागते हैं?
उन्हें इन स्कूलों में बेहिसाब फीस भरने की क्या जरूरत है, लेकिन अगर हम सच कहें तो सरकार की यह दलील सुविधाओं के मामले में आकर कहीं नहीं टिक पाती हैं. भले ही प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों ने इस बार रिजल्ट बेहतर दिए हो मगर इसकी तुलना निजी स्कूल से कतई नहीं की जा सकती. प्रतिवर्ष पूर्वी दिल्ली की आबादी बढ़ रही है मगर वहां उस हिसाब से सरकारी विद्यालय नहीं खोले गए हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि 60 से 100 तक की संख्या में बच्चों का दाखिला कर लिया गया है. ऐसे में शिक्षक कैसे बच्चों पर ध्यान केंद्रित करेंगे और तब सरकारी विद्यालयों में बेहतर पढ़ाई की बात बेमानी लगती है.
अशोक गांगुली कमेटी ने दिल्ली की स्कूली शिक्षा को लेकर अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि सभी कक्षा में 45 से अधिक विद्यार्थी नहीं होने चाहिए. अधिकांश निजी विद्यालयों में भी इसी पैटर्न का पालन किया जाता है लेकिन सरकारी विद्यालयों में ऐसा नहीं किया जा रहा. अभी भी सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों का भारी अभाव है और यह बात खुद सरकार भी जानती और समझती है.
शिक्षण संस्थानों में अभी भी सुरक्षा व्यवस्था एक अहम प्रश्न बनकर हमारे सामने चुनौती पेश कर रहा है.
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन कि 2015-16 की रिपोर्ट में यह बात कही गई है कि पिछले 5 वर्षों में नगर पालिकाओं ने विद्यालयों में बेहतरीन सुविधा उपलब्ध करवाई है. एनयूईपीए के अनुसार भारत में प्राथमिक शिक्षा के तहत पेयजल, शोचालय, डेस्क और कुर्सियों को उपलब्ध कराने में 98% से 100% तक सफलता प्राप्त की गई है. लेकिन जिस तरह से छात्रों को सुविधा उपलब्ध करवाई गई उस मुताबिक शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा पाने में हम नाकाम रहें. हमें बेहतर समाज के लिए, विकसित भारत के लिए शिक्षा के क्षेत्र को लेकर आज थोड़ा उदार होने की जरूरत है.
यह सरकार के साथ-साथ सभ्य समाज की भी जिम्मेदारी है कि वह इस दिशा में आगे बढ़े और हमारे शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए मिलकर कदम बढ़ाए. तभी हम बेहतर कल की उम्मीद कर सकते हैं. बेशक हमारे सामने शिक्षा के क्षेत्र में ढेर सारी चुनौतियां है मगर इससे निपटने की भी जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं हम सब की भी है.
आज सभ्य समाज के साथ नेताओं को इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है. हमारे नेता और हमारे समाज के लोग मिलकर ही एक सतत शिक्षा प्रणाली का विकास कर सकते हैं. इस रिसर्च में हम पूर्वी दिल्ली में होने वाले शिक्षण तंत्र से जुड़े कार्यों का अवलोकन करेंगे. समस्याओं और उनके समाधान जो स्थानीय तौर पर लाए जा रहे हैं उन पर ध्यान देते हुए उनकी संभावनाओं की तलाश करेंगे. जिससे पूर्वी दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था सुधरे. आज हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो स्वत: ही इस दिशा में आगे बढ़ काम करने के लिए सामने आए और समाज के लिए एक प्रेरणा का काम कर सके.