“क्या कश्मीरवासियों को 21वीं सदी में जीने का हक नहीं है, वहां के युवाओं को अलगाववाद की ओर मोड़कर आतंकी बनाने में लगे लोगों के बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं और घाटी के युवा धारा 370 के कारण अपना भविष्य गर्त में जाते देख रहे हैं. आज यह राष्ट्र हित बिल हम लेकर आए हैं, जिससे कश्मीर भी सामान्य रूप से गुजर-बसर कर सकेगा. धारा 370 के कारण ही आज तक 41,000 लोगों की जान आतंकवाद ने लील ली, इस धारा ने पडोसी मुल्कों को घाटी में जहर घोलने का मौका दिया और उन्होंने हमारे युवाजन को अलगाववादी बनने पर विवश कर दिया. अब समय आ गया है कि इतिहास में हुई भूल को सुधारा जाये और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाया जाये और वहां के नागरिकों को विकास के तमाम अवसर उपलब्ध कराए जायें.”
_ गृहमंत्री श्री अमित शाह (राज्यसभा में धारा 370 को हटाने के संबंध में रखे
विचार)
भारत सदा-सर्वदा से अखंड था, विभिन्न रियासतों में बंटा होने के बाद भी इस ऋषि
भूमि में एकता थी, आपसी सौहार्द था. लेकिन गुलामी ने देश की एकता और अखंडता पर ऐसे
अनदेखे प्रहार किये, जिन्होंने देश को सदैव हरे रहने वाले जख्म सौगात में दे दिए. “फूट
डालो और शासन करो”, का अंग्रेजी उपक्रम सफल रहा...इतना सफल कि आप आज भी
भारतीयों-पाकिस्तानियों के दिलों में उसे देख सकते हैं. कश्मीर भी उसी दुखती रग का
एक हिस्सा है, जिससे देश कभी उभर नहीं पाया.
70 वर्ष पुरानी एक बड़ी ऐतिहासिक भूल, जिसने जम्मू-कश्मीर पर विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 थोप दी थी और उसे देश के बाकी राज्यों से अलग थलग कर दिया था....उसमें महापरिवर्तन लाते हुए केंद्रीय सरकार ने हाल ही में राज्यसभा में धारा 370 के प्रावधान बदलने का विधयेक पास करा लिया.
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल के पास हो जाने से मिली-जुली लाखों प्रतिक्रियाओं
के बावजूद भी देश भर में एक ख़ुशी की लहर है और हो भी क्यों न वर्षों से धारा 370
की गुलामी झेल रहा कश्मीर भी अब देश का अभिन्न हिस्सा बनेगा और देश के अन्य
भूभागों की तरह प्रगति कर पायेगा. हालांकि सभी हालात पूरी तरह सामान्य हो जाने में
समय अवश्य लगेगा..पर सरकार द्वारा लिया गया यह निर्णय वास्तव में मील का पत्थर
साबित होगा.
क्या कहती है धारा 370 –
अब तक जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा 370 के प्रावधानों के
अनुसार, संसद को
जम्मू-कश्मीर रक्षा, विदेश मामले और
संचार के विषय में कानून बनाने का सीमित अधिकार तो है, किन्तु किसी अन्य विषय से सम्बन्धित
कानून को लागू करवाने के लिए केन्द्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए. हम
अग्रलिखित बिन्दुओं के जरिये इसे बेहतर तरीके से समझ सकते हैं..
- 1. विशेष दर्जे की इस धारा के चलते जम्मू-कश्मीर में धारा
356 लागू नहीं की जा सकती यानि अन्य राज्यों की भांति राष्ट्रपति के पास राज्य के
संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है.
- 2. यहां दोहरी नागरिकता का विधान है, यानि भारत और कश्मीर
दोनों की ही नागरिकता यहां के नागरिकों को प्राप्त है.
- 3. जम्मू-कश्मीर का अपना अलग राष्ट्रध्वज है और उनके लिए
भारतीय ध्वज का सम्मान करना अनिवार्यता नहीं है.
- 4. इस धारा के चलते भारतीय संसद यहां बेहद सीमित क्षेत्र
में ही कानून बना सकती है.
- 5. धारा 370 कहती है कि भारतीय नागरिकों को विशेष अधिकार
प्राप्त राज्यों में जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है, साथ ही यदि जम्मू-कश्मीर की
कोई युवती किसी भारतीय युवक से विवाह करती है तो उस युवती की नागरिकता समाप्त हो
जाएगी, किन्तु इसके ठीक विपरीत किसी पाकिस्तानी युवक से विवाह करने पर उस युवक को
आसानी से जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाएगी.
- 6. वित्तीय आपातकाल से जुड़ी धारा 360 भी जम्मू-कश्मीर पर
लागू नहीं की जा सकती.
- 7. कश्मीर में स्त्रियों पर शरियत कानून लागू होता है. इसके
अतिरिक्त यहां पंचायत को भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं है.
- 8. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा कार्यकाल 6 वर्षों का होता
है, जबकि भारत के अन्य राज्यों की विधानसभाओं का पंचवर्षीय होता है.
- 9. भारतीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय भी जम्मू-कश्मीर पर लागू
नहीं होते, साथ ही धारा 370 के चलते यहां आरटीआई भी अप्लाई नहीं की जा सकती.
तो अब क्या बदलाव आएगा –
राज्यसभा और लोकसभा में पास हुए नए विधेयक के अनुसार अब
धारा 370 के एक खण्ड को छोड़कर अन्य सभी समाप्त कर दिए गए हैं, अब..
- 1. दिल्ली के ही समान अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो अलग अलग
केंद्र-शासित प्रदेश बनाए जायेंगे.
- 2. दोहरी नागरिकता का प्रावधान समाप्त हो जाएगा और केवल
भारतीय नागरिकता रहेगी.
- 3. अब यहां राष्टपति शासन की धारा 360 और वित्तीय आपातकाल
से जुड़ी धारा 356 भी निर्विवाद लागू की जा सकेगी.
- 4. अल्पसंख्यकों को आरक्षण दिलाये जाने के प्रावधान भी समान
रूप से लागू किये जा सकेंगे.
- 5. अब जम्मू-कश्मीर में एक विधानसभा, एक तिरंगा का प्रावधान
होगा, साथ ही पंचायत भी क्रियात्मक होगी.
- 6. अन्य राज्यों के लोग भी जम्मू-कश्मीर में संपत्ति खरीद
सकेंगे.
- 7. जम्मू-कश्मीर की विधानसभा भी अब केंद्र-शासित होगी और
अन्य राज्यों की भांति पंचवर्षीय रहेगी.
- 8. देश के अन्य हिस्सों के लीग भी अब जम्मू-कश्मीर में
नौकरी पा सकेंगे.
- 9. महिलाओं को शरियत कानून से मुक्ति मिलेगी और अन्य
राज्यों के नागरिकों से विवाह करने के उपरांत भी संपत्ति में उनका हक़ रहेगा.
यहां यह जानना बेहद अहम है कि आखिर ऐसे क्या हालत हुए जिनके
चलते धारा 370 जम्मू-कश्मीर में लगायी गयी? साथ ही वो कौन से कारण थे, जिनके चलते
घाटी लम्बे समय से आतंकवाद, तनाव और दहशत के साये में गुजर-बसर करती आई है? और
सबसे बड़ा मुद्दा यह समझना भी है कि क्यों कश्मीरी जनता को भारतीय संविधान,
नियम-कायदों, सुरक्षा बलों आदि से एतराज रहा है. इन सभी को समझने के लिए हमें
इतिहास के कुछ पन्नों को पलटना होगा...
एक नजर कश्मीर के इतिहास पर –
तकरीबन 6000 वर्ष पुरानी सभ्यता का पर्याय रहा कश्मीर ऋषि कश्यप के नाम से
स्थापित हुआ माना जाता है,
1. कल्हण द्वारा रचित “राजतरंगिणी” के अनुसार तीसरी शताब्दी में कश्मीर पूर्णत
हिन्दू राज्य था, जहां अशोक का राज्य हुआ करता था.
2. इसके उपरांत यह बौद्ध धर्म के अधीन आते हुए कुषाणों के शासन का अंग बना.
3. तदोपरांत लम्बे समय तक कश्मीर पर हिन्दू राजा विक्रमादित्य और उनके वंशजों
का साम्राज्य रहा.
4. चौदहवी शताब्दी में यहां तुर्किस्तान से आए मंगोल मुस्लिम आतंकी दुलुचा ने
हमला कर कश्मीर को अपने कब्जे में ले लिया था, यहीं से कश्मीर में मुस्लिम शासन का
आरंभ माना जाता है.
5. जिसके उपरांत यहां मुग़ल साम्राज्य की स्थापना हुई और मुगल साम्राज्य के
बिखराव के बाद यहां “काले युग”, यानि पठानों के शासनकाल का बिगुल बजा.
6. जिसके बाद वर्ष 1814 में महाराजा रंजीत सिंह ने पठानों को हराकर यहां सिख
साम्राज्य का विस्तार किया.
7. तब तक भारत में ब्रिटिश साम्राज्य अपने चरम पर पहुंच चुका था, कश्मीर भी इस
साम्राज्य से अछुता नहीं रह पाया और वर्ष 1846 में अंग्रेजो ने सिखों को हराकर इसे
अपने अधीन कर लिया.
8. नतीजतन 1846 की लाहौर संधि के अनुसार तत्कालीन शासक महाराजा गुलाब सिंह को
ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से कश्मीर के शासक के रूप में चुना गया.
9. महाराजा गुलाब सिंह के पौत्र महाराजा हरि सिंह वर्ष 1925 में गद्दी पर बैठे
और उन्होंने आज़ादी के समय तक कश्मीर की सत्ता को संभाला.
10. वर्ष 1932 में कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला द्वारा कश्मीर को महाराजा हरिसिंह से मुक्त कराने के लिए आंदोलन शुरू किया गया.
जब राजशाही के खिलाफ उठने लगी घाटी में आवाज –
शेख अब्दुल्ला, घाटी में “ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉफ्रेंस” बनाकर उन
युवाओं के प्रतिनिधि बनकर उभरे, जो राजशाही के अंतर्गत मुस्लिम वर्ग से हो रहे पक्षपात
के खिलाफ थे. अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएट शेख अब्दुल्ला को
कश्मीर में उनकी तमाम शैक्षिक योग्यताओं के चलते भी सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई,
जिसका कारण वें प्रशासन का हिन्दू बहुल होना मानते थे. वें कश्मीर में लोकतंत्र की
स्थापना के प्रबल समर्थक थे और इसी के चलते उन्होंने “महाराजा कश्मीर छोड़ो” आंदोलन
शुरू किया.
कश्मीर भारत और पाकिस्तान में क्यों विलय नहीं होना चाहता था?
वर्ष 1940 के समय जब आज़ादी का संकेत मिलने लगा था, तब
कश्मीर के सम्मुख भी यह प्रश्नचिंह था कि वह निकट भविष्य में किस प्रकार स्थापित
होना चाहेंगे. ऐसे बहुत से हालात उक्त समय थे, जो महाराजा हरि सिंह को उलझाये हुए
थे कि वह आजाद रहे या भारत अथवा पाकिस्तान में मिल जाये.
महाराजा हरि सिंह कांग्रेस समर्थक नहीं थे, क्योंकि उनका
मानना था कि शेख अब्दुल्ला के विरोधाभाषी स्वर के पीछे कहीं न कहीं प्रेरणास्त्रोत
बनकर कांग्रेस काम रही है. यही कारण था कि वे भारत में विलय नहीं करना चाहते थे.
वहीं पकिस्तान के साथ कश्मीर के जुड़ने का अर्थ होता – स्वयं
महाराजा, उनके पारिवारिक जनों, कश्मीरी पंडितों, हिन्दुओं, बौद्धों..यहां तक कि
भाषीय और जातीय आधार पर भिन्न मुस्लिम वर्ग के लिए भी घोषित सांप्रदायवाद के साथ
जुड़ जाना. धार्मिक विखंडन के भय के कारण महाराजा पाकिस्तान में मिल जाने के खिलाफ
थे.
कश्मीर भारत से तो मिला पर कभी भारतीय नहीं हो पाया –
15 अगस्त, 1947 को अंततः भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी मिली. कश्मीर अभी
भी इस उधेड़बुन में उलझा था कि राज्य का भविष्य क्या हो? वहीँ बंटवारे के साथ साथ
केवल पाकिस्तान ही नहीं अपितु सीमा पार आतंकवाद ने भी जन्म लिया. जो घृणा, असंतोष
और सांप्रदायिक तनाव उक्त समय पैदा हुआ, उससे आज तक भी भारत, पाकिस्तान और कश्मीर
मुक्त नहीं हो पाए.
और उसी का नतीजा था कि कश्मीर में तनाव बढ़ने लगा, 26 अक्टूबर, 1947..वह दिन था
जब महाराजा हरिसिंह ने पाक समर्थित कबाईली लड़ाकों के हमलों से त्रस्त आकर भारत के
साथ विलय संधि पर हस्ताक्षर कर दिए थे. इस संधि को “जम्मू-कश्मीर इंस्ट्रूमेंट ऑफ
एक्सेशन” के रूप में जाना जाता है. यानि कश्मीर अब आजाद भारत का भाग था, किन्तु
अपने स्वयं के संविधान के साथ. “सरदार पटेल का चुना हुआ पत्र व्यवहार” नामक पुस्तक
के साभार से निम्नांकित पत्र महाराजा हरि सिंह के उस समय के मनोभावों को बखूबी
चित्रित करता है...
महाराजा हरिसिंह का लॉर्ड माउण्टबेटन को पत्र
दिनांक - 26 अक्टूबर 1947
मैं परमश्रेष्ठ से यह निवेदन करता हूं कि मेरे राज्य में एक गंभीर संकट पैदा हो गया है। मैं आपकी सरकार से तत्काल सहायता की प्रार्थना करता हूं। परमश्रेष्ठ जानते ही हैं कि जम्मू-कश्मीर राज्य अब तक भारत या पाकिस्तान किसी भी उपनिवेश के साथ जुड़ा नहीं है। भौगोलिक दृष्टि से मेरा राज्य इन दोनों के साथ जुड़ा हुआ है। इसके साथ मेरे राज्य की सोवियत संघ तथा चीन के साथ समान सीमा है। भारत और पाकिस्तान अपने बाह्य संबंधों में इस सत्य की उपेक्षा नहीं कर सकते। यह निर्णय लेने के लिए पहले मैंने समय चाहा था कि किस उपनिवेश के साथ जुड़ूं, अथवा क्या यह दोनों उपनिवेशों और मेरे राज्य के हित में नहीं होगा कि मैं स्वतंत्र रहूं और बेशक, दोनों उपनिवेशों के साथ मेरे मैत्रीपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण संबंध रहें। इसके अनुसार, मैंने भारत और पाकिस्तान से विनती की कि वे मेरे राज्य के साथ यथावत स्थिति का करार कर लें। पाकिस्तान सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। भारत ने मेरी सरकार के प्रतिनिधियों से अधिक चर्चा करनी चाही। नीचे बताई जा रही घटनाओं की वजह से मैं इसकी व्यवस्था नहीं कर सका। सच पूछा जाए तो पाकिस्तान सरकार यथावत स्थिति के करार के मातहत राज्य के भीतर डाक-तार व्यवस्था का संचालन कर रही है। यद्यपि पाकिस्तान के साथ हमने यथास्थिति का करार किया है, फिर भी उसने मेरे राज्य में पाकिस्तान होकर आने वाले अनाज, नमक तथा पेट्रोल जैसी वस्तुओं को अधिकाधिक मात्रा में रोकने की इजाजत अपने अधिकारियों को दे दी है। अफ्रीदियों को, सादी पोषाक पहने सैनिकों को तथा आतताइयों को आधुनिक शस्त्रास्त्रों के साथ राज्य के भीतर घुसने दिया गया है- सबसे पहले पुंछ क्षेत्र में, फिर सियालकोट से और अंत में भारी तादाद में रामकोट की ओर हजारा जिले से जुड़े हुए क्षेत्रों से। नतीजा यह हुआ कि राज्य के पास मर्यादित संख्या में जो सेना थी उसे अनेक मोर्चों पर बिखेर देना पड़ा है और उसे अनेक स्थानों पर साथ- साथ शत्रुओं का सामना करना पड़ रहा है। इससे जान माल की भयंकर बर्बादी को रोकना कठिन हो गया है। महूरा पॉवर हाउस की लूट को भी नहीं रोका जा सका, जो समस्त श्रीनगर को बिजली मुहैया कराता है और जिसे जला दिया गया है।
भारी संख्या में किया गया स्त्रियों का अपहरण और उनपर किया गया बलात्कार मेरे ह्रदय को चूर- चूर किए दे रहा है। इस प्रकार जिन जंगली शक्तियों को पाकिस्तान ने मेरे राज्य में घुसने दिया है, वे पहले क़दम के रूप में मेरी सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर पर अधिकार करने और फिर सारे राज्य को रौंद देने और तहस- नहस कर डालने का लक्ष्य सामने रखकर आगे बढ़ रही हैं। उत्तर- पश्चिमी सीमा प्रांत के दूर- दूर के क्षेत्रों से आए हुए कबाइलियों की- जो नियमित मोटर- ट्रकों से आ रहे हैं, मशेनरा- मुज़फ़्फ़राबाद मार्ग का उपयोग कर रहे हैं और अद्यतन शस्त्रों से सज्ज होते हैं। ऐसी सामूहिक घुसपैठ सीमा प्रांत की प्रांतीय सरकार और पाकिस्तान सरकार की जानकारी के बिना संभव नहीं हो सकती। मेरी सरकार ने इन दोनों सरकारों से बार- बार अपील की है, परन्तु इन आक्रमणकारियों को रोकने का या मेरे राज्य में न आने देने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया है। सच पूछा जाए तो पाकिस्तानी रेडियो और अख़बारों ने इन घटनाओं के समाचार दिए हैं। पाकिस्तानी रेडियो ने तो यह बात भी ज़ाहिर की कि कश्मीर में एक अस्थाई सरकार स्थापित कर दी गई है। मेरे राज्य की जनता ने, मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों ने, सामान्यतः इस गड़बड़ी में कोई हिस्सा नहीं लिया है।
मेरे राज्य की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए, आज के घोर संकट को देखते हुए मेरे पास भारतीय उपनिवेश से सहायता माँगने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं रह गया है। स्वाभाविक रूप से ही जब तक मेरा राज्य भारतीय उपनिवेश के साथ जुड़े नहीं, तब तक वह मेरी माँगी हुई सहायता नहीं भेज सकता। इसलिए मैंने भारत के साथ जुड़ने का निर्णय किया है और मैं इस पत्र के साथ आपकी सरकार की स्वीकृति के लिए सम्मिलन का एक दस्तावेज़ भेज रहा हूँ। दूसरा विकल्प है मेरे राज्य और मेरी प्रजा को लुटेरों और हत्यारों के हाथ में छोड़ देना। इस आधार पर कोई सभ्य सरकार टिक नहीं सकती या काम नहीं कर सकती। जब तक मैं इस राज्य का शासक हूँ और मुझमें इस राज्य की रक्षा करने की शक्ति है, तब तक मैं यह विकल्प कभी स्वीकार नहीं सकता।
मैं परमश्रेष्ठ की सरकार को यह भी बता दूँ कि मेरा इरादा
तुरंत अंतरिम सरकार स्थापित करने का तथा इस संकट में मेरे प्रधानमंत्री के साथ
शासन की ज़िम्मेदारियाँ संभालने की बात शेख़ अब्दुल्ला से कहने का है। मेरे राज्य
को यदि बचाना है तो उसे श्रीनगर में तत्काल भारत की मदद मिलनी चाहिए। श्री वीपी
मेनन परिस्थिति की गंभीरता को पूरी तरह जानते हैं, और इस संबंध में अधिक स्पष्टीकरण ज़रूरी हो, तो वे आपको यहाँ
की स्थिति समझा देंगे।
धन्यवाद..!
हालांकि अब कश्मीर भारत का हिस्सा था किन्तु अन्य रियासतों की तरह कश्मीर भारत के साथ पूरी तरह नहीं मिल पाया, जिसका कारण सरकार के साथ उभरते मतभेद थे.
जब संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार गूंजा “जम्मू-कश्मीर” मुद्दा –
1 फरवरी, 1948 को लार्ड माउंटबेटन के मशविरे पर भारत कश्मीर मुद्दे को संयुक्त
राष्ट्र संघ ले गया. भारत की चिंता थी कि जब कश्मीर ने भारत में खुद का विलय कर
लिया है तो कश्मीर का उत्तरी इलाका अभी भी पाकिस्तान के कब्जे में क्यों है?
उत्तरी कश्मीर को पाक समर्थित गुटों से स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से तत्कालीन
प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु ने संयुक्त राष्ट्र संघ में यह मुद्दा उठाया.
उक्त मुद्दे पर पाकिस्तान की ओर से पैरवी कर रहे जफरुल्ला खान ने इस मुद्दे को
बेहतर तौर पर संघ के समक्ष रखा और कहा कि आज उत्तरी कश्मीर में बढ़ रहा तनाव विभाजन
के समय उत्तर भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों का परिणाम है. उन्होंने इस मुद्दे को
“बंटवारे की अधूरी प्रक्रिया” करार देते हुए इसे मुस्लिम जनता की पीड़ा से उत्पन्न
स्वाभाविक प्रक्रिया बताया. जिसका नतीजा हुआ कि संयुक्त राष्ट्र में यह मुद्दा
जम्मू-कश्मीर का नहीं रह के “भारत-पाकिस्तान” के आपसी तनाव का प्रतीक बना दिया
गया.
और इस तरह वजूद में आई धारा 370 –
17 अक्टूबर, 1949 में घाटी में निरंतर बढ़ते तनाव के चलते संसद में महाराजा हरि
सिंह के दीवान गोपाल स्वामी अयंगार ने जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष दर्जा दिलाने
की मांग रखी. जिसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि..
“कश्मीर के उत्तरी हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा है और राज्य संघर्षशील स्थिति में उलझा हुआ है. आधे लोग उधर फंसे हैं और आधे इधर. साथ ही राज्य की स्थिति भारत के अन्य राज्यों की तुलना में अपेक्षाकृत बेहद अलग है..इसलिए फिलहाल यहां भारतीय संविधान पूर्णत: लागू करना अभी सही नहीं है. इसलिए यहाँ अस्थायी तौर पर धारा 370 लगायी जनि चाहिए, जिसे हालात सामान्य होने के बाद हटा दिया जाएगा.”
भारतीय संविधान के 21वें भाग में वर्णित धारा 370 संविधान में जोड़ी गयी अंतिम धारा थी, जिसमें तीन खंड आते हैं. 370(1) में प्रावधान के मुताबिक जम्मू और कश्मीर की सरकार से सलाह करके राष्ट्रपति आदेश द्वारा संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों को जम्मू और कश्मीर पर लागू किया जा सकता है. 370(3) में प्रावधान था कि धारा 370 में बदलाव के लिए भारत के राष्ट्रपति जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा से सहमति के उपरांत इसे खत्म कर सकते हैं.
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का विरोध – एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे
तत्कालीन कैबिनेट में उद्योग और आपूर्ति मंत्री रहे डॉ
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 का कड़े शब्दों में विरोध किया था, उनके अनुसार
एक ही देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान होना सरासर गलत था. इसी के चलते
उन्होंने मंत्रीपद से इस्तीफा देते हुए “भारतीय जनसंघ” यानि आज की “भारतीय जनता
पार्टी” की स्थापना की थी. भाजपा का इतिहास फिर कभी जानेंगे किन्तु यहां समझने
योग्य तथ्य यही है कि डॉ मुखर्जी ने अपना विरोध प्रदर्शन करने के लिए वर्ष 1952
में जम्मू में हुई विशाल रैली में कहा था कि,
“या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा."
और वास्तव में इसी संकल्प की पूर्ति करते करते अगले ही वर्ष
जम्मू-कश्मीर में बिना परमिट की यात्रा करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया
गया और 23 जून को उनकी मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई, जो आज भी रहस्य ही
बना हुआ है.
वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा धारा
370 को समाप्त करवाना एक प्रकार से डॉ मुखर्जी को श्रृद्धांजली भी कही जा सकती है.
वर्ष 1952 का दिल्ली समझौता और धारा 35ए –
जम्मू कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला और
प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु के मध्य वर्ष 1952 में एक समझौता हुआ था, जिसे “दिल्ली
समझौता” के नाम से जाना जाता है. इसके अंतर्गत संविधान की धारा 370 के प्रथम खंड
का भाग के तहत भारत के राष्ट्रपति को राज्य विषयों के लाभ के लिए संविधान में
संसोधन करने का अधिकार था.
इसी समझौते के चलते 14 मई, 1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति
डॉ. राजेंद्र प्रसाद के द्वारा धारा 35ए लागू कर दी गयी, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर
सरकार और विधानसभा को अपने राज्य में स्थायी नागरिक तय करने का अधिकार मिल गया. इस
धारा को आधार बनाकर वर्ष 1956 में जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा राज्य में स्थायी
नागरिक की परिभाषा तय की गयी, जिससे स्थितियां विकट होती चली गयी.
इतिहास से बाहर निकलकर वर्तमान में आएं तो लम्बे प्रयासों के बाद अब कश्मीर शायद पूरी तरह आजाद हो पाया है. गुलामी के यह 70 वर्ष कश्मीर में सिवाय आतंकवाद के कुछ अधिक नहीं दे सके, हालांकि अभी भी बर्षों से व्यापत शंकाओं को मिटने में समय लगेगा. साथ ही वहां के नागरिकों को मनोवैज्ञानिक रूप से भारत के साथ मिलने में भी वक्त लगेगा....पर तसल्ली है कि भारत अब अखंड है...कश्मीर से कन्याकुमारी तक अब एक विधान..एक निशान और एक प्रधान है. स्वतंत्रता से पूर्व ही मिली यह स्वतंत्रता भी किसी त्यौहार से कम तो नहीं...
जय हिन्द..जय भारत..!!
सम्पादकीय -
कश्मीर का मसला हमेशा अंग्रेजों या 1947 के इतिहास के बाद के चश्मे से देखा जाता आ रहा है, इस मामले को हजारों सालों के इतिहास और आज के जो वैश्विक सच है उसके परिपेक्ष्य में देखना ज़रूरी है.
हिंदुस्तान या हिन्द एक सांस्कृतिक एवं भौगोलिक इकाई है, और धर्म, जाती, उंच नीच, परिवार इत्यादि से अलग है और ऊपर है. राष्ट्र भौगोलिक संरचना और उससे बनी संस्कृति पर आधारित होते हैं. अरब एक भौगोलिक इकाई है, वैसे ही यूरोप और वैसे ही भारत.
धर्म को आधार कर के पहला राष्ट्र पाकिस्तान अंग्रेजों ने अपना पिंड छुड़ाने के लिए बनवाया, और दूसरी बात आई.सि.ल ने हाल फ़िलहाल की जिसका भयावह स्वरुप पिछले दशक में देखने को मिला. कश्मीर काफी पीछे छूटा है, और उसका गुस्सा लोगों में है, और उसी गुस्से को सीमा पार और सीमा के अन्दर के एलीट भड़का कर अपनी सत्ता सँभालते आये हैं.अंग्रेजों की इस धरोहर को क्या हमें नए भारत में अपने गले में टांग कर घूमना चाहिए, या राष्ट्र को अपनी सही दिशा ढूंढनी होगी? ये सवाल धारा 370 के मसले पर बात करते समय खुद से पूछें.