भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक समय नारा दिया था ‘जय जवान, जय किसान’ का. मगर आज इन दोनों की स्थिति महज वोट बैंक पॉलिटिक्स भर के लिए रह गई है. शरहद पर एक तरफ जवान मर रहा है तो खेत में किसान. इनका सुध लेने वाला कोई नहीं. चुनाव के दौरान यह मुद्दों के केंद्र में होते हैं मगर चुनाव होते ही इनका हाल 500 और 1000 वाले पुराने नोटों की तरह हो जाता है. इनके बारे में कहा तो जाता है मगर इनके लिए कुछ किया नहीं जाता. देश के अन्नदाता किसान आज दो जून खाने को तरसे इससे शर्मसार बात क्या होगी. गलत नीतियों और महंगाई की मार आखिर किसान कब तक झेलता रहेगा. बड़े-बड़े तमगेदारों और सुधिजनों से एक सवाल आखिर आपके, हमारे और हम सबके अन्नदाता की अपेक्षा आखिर कब तक?
इस रिपोर्ट को पढ़ने से पहले किसनों पर लिखी गई यह कविता भी पढ़ें. खुद में झांके, बाहरी आडम्बर से वक्त निकाल कर भारत के इस स्याह रंग को भी देखे जरूर :-
हर रोज लड़ता हूँ खुद से,
कुदरत और सरकारी तमाचे से भी.
हर रोज, स्वाहा हो जाता है फसलों का बोझा,
हर रोज, बढ़ता जाता है कर्ज का बोझ,
हर रोज ही खेला जाता है हमसे,
अब तो हर रोज बनाया जाने लगा है हमारा मजाक भी,
100 रुपए की चेक से महीना तो निकल ही जायेगा?
भले ही 100 रुपए ये नेता चंदे में ना ले,
पर मैं नेता भी तो नहीं,
मैं तो बस एक किसान हूँ.
छह साल से धान के औसतन लागत से कम दिया जा रहा न्यूनतम समर्थन मूल्य
किसान का बिगड़ता अर्थशास्त्र: 2016-17 में धान की उत्पादन लागत 2074 न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1510 रुपए, घाटा 764 रुपए प्रति क्विंटल. कृषि विभाग खुद मान रहा है कि धान की उत्पादन लागत से न्यूनतम समर्थन मूल्य कम मिल रहा है. छह साल हो गए, उत्पादन लागत और समर्थन मूल्य का अंतर बढ़ रहा है. 2016-17 में तो यह अंतर 764 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया है. इस अंतर को खत्म करने की दिशा में अभी तक कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. किसानों के लिए दिक्कत यह है कि धान की उत्पादन लागत भी हर साल बढ़ रही है. इन छह सालों में ही उत्पादन लागत 1204 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ कर 2016 में 2074 रुपए प्रति क्विंटल पहुंच गई है. यानी सीधे-सीधे 870 रुपए प्रति क्विंटल खर्च बढ़ गया है. शुक्रवार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कमिशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड कटिंग के चेयरमैन विजय पाल शर्मा की अध्यक्षता में पांच राज्यों की एक बैठक में प्रदेश में धान लागत के यह आंकड़े रखे गए. इसमें उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, पंजाब, यूपी व हरियाणा के कृषि विभाग के अधिकारियों ने भाग लिया. यह पहला मौका है कि कमिशन की बैठक न सिर्फ दिल्ली से बहार हुई, बल्कि किसानों को भी इसमें शामिल किया गया. कृषि विभाग के अधिकारियों ने अपने-अपने राज्यों में धान की उत्पादन लागत का ब्यौरा बैठक में पेश किया.
आंकड़े ही बता रहे घाटे का सौदा है धान
युवा किसान संघ के प्रधान प्रमोद चौहान ने बताया कि धान की खेती के आंकड़े ही बता रहे हैं कि यह घाटे का सौदा है. लेकिन किसानों के पास इसका विकल्प क्या है? हर साल हो रहे घाटे से किसानो की आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी ही. अब होना तो यह चाहिए कि या तो धान का समर्थन मूल्य बढ़े या फिर उत्पादन लागत ही कम की जाए. दिक्कत यह है कि दोनों ही स्थितियों पर काम नहीं हो रहा है.
एमएसपी में खरीददार का भी ध्यान रखना जरूरी है
कमिशन के चेयरमैन विजय पाल शर्मा ने बताया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त उपभोक्ताओं का ध्यान रखना भी जरूरी है. यह नहीं हो सकता कि जितनी कॉस्ट आ रही है उसके अनुसार ही एमएसपी तय किया जाए. यह जरूर तय किया जाता है कि फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न बिके. न्यूनतम समर्थ मूल्य में राज्यों की सिफारिश पर ध्यान तो रखा जाता है. इसके बाद सभी परिस्थितियों पर विचार करने के बाद ही एमएसपी तय किया जाता है.
किसान को तो मजदूरी भी नहीं मिल रही है
बैठक में कृषि विभाग के अधिकारियों ने बताया कि धान उत्पादन में किसान को मजदूरी भी नहीं मिल रही है. इस तरह से चलता रहा तो किसान बदहाल हो जाएगा. इस स्थिति को बदलने के लिए उचित कदम उठाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया. यह भी बताया गया कि फसल विविधिकरण इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता. क्योंकि इसमें भी बड़ा रिस्क है. बैठक में यह निर्णय हुआ कि इस बार के न्यूनतम समर्थ मूल्य तय करने में इन स्थितियों का भी ध्यान रखा जाएगा.
धान उत्पादन लागत व एमएसपी के छह साल के आंकड़े
साल खर्च राज्य से प्रस्तावित समर्थन मूल्य निर्धारित समर्थन मूल्य
2010 1204 1500 1080
2011 1277 1550 1110
2012 1566 1960 1250
2013 1757 2000 1280
2014 1886 2100 1310
2015 1994 2193 1450
2016 2074 2281 1510
गेहूं के एमएसपी पर प्रति क्विंटल 349 रुपए का किसान को घाटा
कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट एडं प्राइसिज (सीएसीपी) ने रबी फसल (2016-17) के लिए गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में मात्र 100 रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि की है. गेहूं का समर्थन मूल्य 1625 रुपए प्रति क्विंटल किया गया है, जबकि हरियाणा सरकार ने 350 से 400 रुपए प्रति क्विंटल वृद्धि की डिमांड सीएसीपी को भेजी थी. लेकिन वहां पर सीएसीपी ने हरियाणा की इस डिमांड को कोई तवज्जो ही नहीं दी और अपनी मर्जी से रेट बढ़ाने का निर्णय लिया.
हरियाणा में जहां हर साल करीब 25 लाख हैक्टयेर भूमि पर गेहूं की खेती होती है और करीब 110 लाख मीट्रिक टन गेहूं का उत्पादन होता है. यह तो कृषि विभाग भी स्वीकार करता है कि गत वर्ष 1 क्विंटल गेहूं उत्पादन पर किसान का 1974 रुपए खर्च आया था इसका मतलब समर्थन मूल्य 1625 रुपए प्रति क्विंटल पर किसानों को 349 रुपए प्रति क्विंटल का सीधा नुकसान है. ऐसे में गेहूं की खेती किसान के लिए निरंतर घाटे का सौदा होती जा रही है.
1970 में गेहूं 76 रुपए प्रति क्विंटल था और उस समय सोने का रेट 84 रुपए का दस ग्राम होता था. उस समय किसान अपना ढ़ाई क्विंटल गेहूं बेचकर एक तोला सोना खरीद लेता था. अब आज के हालात देख लीजिए कि 1 क्विंटल गेहूं का रेट 1625 रुपए मिलेगा और सोना 25 हजार रुपए का दस ग्राम चल रहा है.
फिर तो किसान आत्महत्या ही करेगा
आंकड़े बताते हैं कि सन 1995 से लेकर 2015 तक 20 सालों में देश में 3 लाख 20 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इस बार किसानों को कुछ उम्मीद थी कि उनको रबी फसलों के लिए अच्छा एमएसपी मिलेगा, लेकिन उनकी उम्मीद पूरी नहीं हुई.
रेट तो सेंटर ही तय करता है हम तो सिफारिश ही कर सकते हैं
हरियाणा के कृषि मंत्री ओपी धनखड़ ने बातया कि रेट तो सेंटर ही तय करता है. हमने सिफारिश की थी, इसे माना नहीं गया. फिर भी जो वृद्धि हुई वह ठीक है. किसानों का काम चल सकता है. हम किसानों की आय बढ़ाने के दूसरे विकल्प पर विचार कर रह हैं. इसके आने वाले समय में अच्छे परिणम सामने आएंगे. मगर यहाँ प्रश्न यह है कि अभी का क्या? दशकों से ऐसा ही चलता आ रहा है.
लेकिन हम सब के लिए यह चिंता की बात है
आज भले ही सरकार समर्थन मूल्य तय करने के पीछे तर्क दे रही है कि कस्टमर का ध्यान रखना जरूरी है. हकीकत तो यह है कि अलग-अलग ब्रांड के आटे बाजार में किस रेट पर बिक रहे हैं. आटा बेचने वाली कंपनियों के रेट पर सरकार का कोई नियंत्रण ही नहीं है. वें अपनी मर्जी का रेट तय कर रहे हैं. मल्टी ग्रेन आटे के नाम पर बहुत ही महंगा आटा बाजार में बेचा जा रहा है. कोई भी सरकारी एजेंसी ऐसी नहीं जो यह जांच करती है कि आटे में वह सब है जो इसमें बताया गया है. इससे साफ है कि सरकार भले ही तर्क कस्टमर का ध्यान रखने का देती है, हकीकत यह है कि कस्टमर के हित भी सुरक्षित रखने का कोई प्रावधान नहीं है. इससे साफ है कि ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि छोटे किसान खेती से अलग हो जाए. ऐसा हुआ तो एक बड़ा तबका अपने खेत बेचने पर मजबूर हो जाएगा. यह खेत कौन खरीदेगा, कॉर्पोरेट या फिर बड़े जमींदार. तब क्या होगा, एक बार इनके हाथ में ,खेती गई तो समझो हमारी रोटी पर कॉर्पोरेट का कब्जा होगा. तब वें खुद से रेट तय करेंगे.
यहीं भारतीय खेती का सच है. हमने आपके सामने आकड़ों का विश्लेषण रखा है. यह आकड़ें काफी भयावह हैं. अब भी हम नहीं जागे तो यह भी तय मानिए की आने वाले समय में हमें रोटी की कीमत भी सोने के भाव ही खरीदनी पड़ेगी. तब सबकुछ उनका होगा फसल भी उनकी और रेट भी उनका. किसान उनके यहाँ मजदूर होंगे और हम उनके मनमाफिक दामों के आगे विवश. आखिर भूख तो सभी को लगती है और खाना भी सभी को खाना है.
अपील - किसानों का जायज हक़ उन्हें मिले
हरित क्रांति के बाद से खाद्य सुरक्षा के नाम पर, या कहें कमीशन बनाने के लिए और ठेकेदारों को प्रोजेक्ट्स बेचने के मौक़े देने के लिए हमने अपने खेतों का जबरदस्त दोहन किया, अति उत्पाद कर अनाज को गोदामों में रख कर सड़ाया, आज हम अपनी विषम आयात और निर्यात नीतियों से और खाद्य प्रसंस्करण द्वारा जबरदस्त औधोगिकरण से इस स्थिति को और बदतर करते जा रहे हैं।
BallotboxIndia की एक कोशिश है कि किसानों का जायज हक़ उन्हें मिले और उसके लिए समाज और मुक्त बाज़ार में अर्थशास्त्र और विकास के सही मानक स्थापित किये जाएं . सिर्फ किसानों के लिए बात नहीं सरकार काम भी करें. अगर हमारे देश का अन्नदाता ही भूखे सोने को मजबूर हो तो उनके पास विकल्प ही क्या बचेगा. उजाले की तरफ देख रहे इंसान को अंदर का अंधेरा नजर नहीं आता इसका यह तात्पर्य नहीं की हम अंधेरे का इंतजार करें. हम समाज के सुधिजनों से आग्रह और अपील करते हैं कि वह आगे निकल कर आयें और किसानों के जायज हक़ के लिए आवाज उठाये. समाज और किसानों की बेहतरी के लिए हमारे साथ काम करना चाहते हैं तो अपना विवरण हमें coordinators@ballotboxindia.com पर भेजें, या नीचे कनेक्ट का बटन दबा कर अपने बारे में बताएं . हमसे जुड़े रहें.