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भारत में शिक्षा का अधिकार - लड़ाई के मैदान या सामान और व्यापक मौक़े, एक समीक्षा एवं समाधान

  • भारत में शिक्षा का अधिकार - लड़ाई के मैदान या सामान और व्यापक मौक़े, एक समीक्षा एवं समाधान
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क्या भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमारे आने वाली पीढ़ी को इक्कीसवीं सदी की नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम बना पाने में समर्थ है ? प्रश्न यह भी बहुत महत्वपूर्ण है की क्या हम अपने युवाओं को एक नयी सोच के साथ आधुनिक  शिक्षा प्रणाली के माध्यम से वो उचित अवसर प्रदान कर पाते हैं जिससे कि वे आने वाले वर्षों या दशकों में हमारे देश को एक सशक्त व संमृद्ध राष्ट्र के रूप में विश्व मंच पर गौरवपूर्ण स्थान दिला पायेंगे या हम वर्तमान की दकियानूसी शिक्षा व्यवस्था पर ही उन्हें चलने देंगे जिससे बाहर निकल कर सिर्फ चुनिन्दा विद्यार्थी ही अपनी मौलिक सोच के बल पर कुछ नया व उपयोगी सृजन कर पाते है. अभी तो अधिकांश विद्यार्थियों की मेघा तो रट्टू तोता बनने में ही व्यय हो जाती है और आधुनिक वैश्विक शिक्षण-चिंतन-मनन  के  परिपेक्ष्य में फिसड्डी रहने को मजबूर हो जाती है.
यदि हमारे देश को आसन्न भविष्य में विश्व के उन्नत राष्ट्रों की कतार में अग्रणी होना है और विश्व गुरु के रूप में मानवता को नेतृत्व प्रदान करने का सपना सच करना है तो हमें सर्वप्रथम अपनी पूरी इमानदारी से देश की शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोष का विवेचन करना ही होगा. 
हमने अपने अनुसन्धान के क्रम में देश के कुछ अत्यंत प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थाओं को चुना और मुख्य रूप से निम्न बिन्दुओं पर विचार किया :

१. हमारे शिक्षण संस्थाओं में व्याप्त प्रमुख ढांचागत कमजोरियां व दोष

२. इन संस्थाओं में देश को भविष्य में उच्च विकास के पथ पर ले जाने की संभावनाएं और तैयारी

३. देश में वैसे लाखों करोड़ों परिवारों को जो गरीबी रेखा के नीचे रह कर अभी जीवन यापन कर रहे है उनके स्थायी आर्थिक समृधि और स्वावलम्बन देने में इन शिक्षण संस्थाओं की भूमिका

अपने अनुसन्धान के क्रम में हमने सर्वप्रथम इस विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित किया की वर्तमान में इन संस्थानों में अध्ययनरत विद्यार्थियों का लिंगानुपात क्या है और इनके परिवारों की आर्थिक- सामाजिक पृष्ठभूमि कैसी है. हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था वर्तमान के प्राथमिक- माध्यमिक विद्यालयों से उत्तीर्ण इन युवाओं को कैसे और कितने अवसर प्रदान करने में सफल हुई है, इस पर भी विवेचन किया गया है. साथ ही पूरे देश में आने वाली पीढ़ियों का कौशल विकास समेकित रूप से मेघा के अनुसार समान अवसर प्रदान करते हुए कैसे किया जा सकता है, इस पर भी विमर्श किया जाना आवश्यक है.
स्वाभाविक कारणों से हमने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) को अपने अनुसन्धान के लिए चयनित किया चूंकि लाखों भारतीय युवाओं के लिए इसमें दाखिला पाना एक सपना होता है और प्रत्येक वर्ष इसकी प्रवेश परीक्षा में लाखों विद्यार्थी भाग लेते है. इसकी प्रवेश परीक्षा बारहवीं कक्षा के उत्तीर्ण विज्ञानं के छात्रो के लिए आयोजित के जाती है और देश के तमाम शिक्षण बोर्ड के पाठ्यक्रम निर्धारण में भी इस प्रवेश परीक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता रहा है. 
अपने अनुसन्धान के क्रम में हमने इन प्रश्नों पर विशेष रूप से गौर किया:

१. क्या हमारी वर्तमान स्कूली शिक्षा प्रणाली आई. आई टी. जैसे विख्यात संस्थानों में सही लिंगानुपात में विद्यार्थियों को प्रवेश/नामांकन दिलाने में समर्थ है?

२. सभी जिला स्तर के आंकड़ों से यह पता चलता है कि प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की संख्या में  गहरी असमानता है. अतएव अनेक विद्यार्थियों को प्राथमिक शिक्षा के बाद  सिर्फ इसलिए पढाई छोड़ देनी पड़ती है क्योंकि उनके लिए आगे पढ़ने के मार्ग बंद हो जाते है. क्या हम इस विषमता को दूर कर सकते हैं?

अगर हमें अपने देश के बच्चों को गुणवत्ता और कुशलता से परिपूर्ण एक शैक्षिक वातावरण देना है तो हमारे विचार में माध्यमिक स्तर की शिक्षा यानि कक्षा ८ से १२ तक की शिक्षा पर हमें पूरा ध्यान देना अपरिहार्य होगा. वस्तुतः इसी स्तर से ही विद्यार्थी अपने भविष्य की उच्च शिक्षा की नींव का  निर्माण करते हैं.
अपने शोध के अंतर्गत हमने पाया कि विभिन्न आई. आई टी. संस्थानों में लड़कियों की  भागीदारी मात्र २ फीसदी से १० फीसदी तक ही है. क्या लड़कियों को इंजीनियरिंग की पढाई में कम रूचि है या इसकी प्रवेश परीक्षा लड़कों के लिए अधिक अनुकूल है, इन तथ्यों को जानने के लिए हमने प्रयास किया.
ऐसा कोई प्रगट संकेत या कारण नहीं है की लड़कियों को आई.आई.टी. अथवा अन्य इंजीनियरिंग संस्थानों में दाखिला लेने में कोई अरुचि हो. वर्तमान में इंजीनियरिंग के क्षेत्र से जुडी  नौकरियों  के तमाम अच्छे अवसर हैं, विशेषकर इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी या विनिर्माण क्षेत्र में, अतः इसके प्रति लड़कियों की उदासीनता का कोई ठोस तर्क नहीं है.

अब इस बात को परखना आवश्यक है की क्या आई.आई.टी. जैसे संस्थानों की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करना लड़कों के लिये अधिक अनुकूल है. इस बात से जुड़े विभिन्न पहलुओं व आयामों को गहराइ से विश्लेषण किया जाना ज़रूरी है.

Assocham की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में तमाम निजी कोचिंग संस्थानों का सकल सालाना व्यवसाय सन २०१५ में करीब २६०,००० करोड़ रुपयों का आँका जा रहा है. गौरतलब है कि ये रकम भारत सरकार द्वारा सन २०१५ में स्कूल शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए आवंटित राशि से भी साढ़े तीन गुना अधिक है ( सन २०१५ में सरकारी बजट राशि: ६९०७४ करोड़). इस संदर्भ में ये भी संज्ञान में लेना महत्वपूर्ण होगा कि तमाम  केंद्रीय विद्यालय जो बारहवी कक्षा तक की अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा देने वाले विद्यालय के रूप में पूरे देश में अनेकों शहरों और नगरों में भारत सरकार द्वारा खोले जा चुके है और वहां करीब १२ लाख छात्र=छात्राएं पढ़ते है, उन  केंद्रीय विद्यालयों के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष २०१५ में  किये गए सरकारी व्यय से यह रकम लगभग ७७ गुना अधिक है.

उपरोक्त आंकड़ों से यह स्पष्ट होता  है कि प्रति वर्ष  शिक्षा के क्षेत्र में लाखों अभिवावक अपनी गाढ़ी कमाई की एक बड़ी रकम अपने बच्चों का भविष्य सँवारने के लिए इन निजी कोचिंग संस्थानों को फीस के रूप मे देते है. सनद रहे है कि भारत में सभी निजी कोचिंग संस्थान किसी शासकीय नियंत्रण से बंधे हुए नहीं है और इन सबों के फीस इत्यादि के  निर्धारण में भी सरकारी हस्तक्षेप नहीं है.

आप किसी भी नामी गिरामी कोचिंग संस्थानों ( जैसे FIITJEE, VidyaMandir, Super30 आदि) के आई.आई टी. प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण उनके कोचिंग केन्द्रों के विद्यार्थियों के प्रकाशित सूची पर नज़र डाले तो स्पष्ट हो जायेगा  कि उन सूचियों में  कुछ चुनिन्दा छात्राओं के  ही नाम है और अधिकतर नाम तो लड़कों के ही होंगे. इस पहेली को समझने के लिए हमें समग्रता से आई.आई.टी  प्रवेश परीक्षा में सफलता से जुड़े  विभिन्न आयामों का सूक्ष्म विश्लेषण करना होगा.

१. अनेकों अभिवावक अपने बच्चों को कक्षा ८ से ही आई.आई.टी आदि इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले निजी  कोचिंग संस्थानों में दाखिला दिलवा देते है. ये निजी कोचिंग संसथान सामान्यतः शहरी क्षेत्रों में ही होते है. राजस्थान के कोटा शहर और ऐसे कुछ अन्य छोटे शहरों में भी इनकी बहुतायत है.

२. भारत में लड़कियों की सुरक्षा अभिवावकों के लिए एक सतत चिंता का विषय होता है अतः वे अपनी किशोर वय की बेटियों को दूर शहर में पढ़ने के लिए जाने देने में हिचकिचाते है. शहर में भी प्राय विद्यालय के नियमित समय के पश्चात  इन कोचिंग संस्थानों में देर शाम तक पढाई कराइ जाती है और यह भी छात्राओं के आवागमन सम्बन्धी सुरक्षा के लिए प्रतिकूल ही समझा जाता है.

३. इन निजी कोचिंग संस्थाओं की फीस भी भारी भरकम होती है. सीमित आर्थिक साधनों वाले परिवार (अधिकतर इसी श्रेणी में आते है) ये राशि बेटियों के बनिस्पत अपने परिवार के लड़कों पर व्यय करना उचित समझते है. लड़कों के दूर शहर में पढने अथवा देर शाम तक कोचिंग के लिए बाहर रहने में कोई सुरक्षा सम्बन्धी खतरा भी नहीं के बराबर माना जाता है.

उपरोक्त कारणोंवश यह देखा गया है कि आठवीं कक्षा से ही लड़कियाँ समाज के इस भेदभावपूर्ण रवैये के कारण लड़कों से प्रतिस्पर्धा में पिछडने लगती है और समाज का एक बड़ा हिस्सा मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया जैसे वृहद् कौशल कार्यक्रमों में अपना यथोचित योगदान करने से वंचित रह जाता है. 

माना कि देश में आई.आई. टी. के अलावा भी अनेक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज है पर कमाबेश सभी तकनीकी कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा में ये ही स्थिति पाई जाती है और इन्ही निजी कोचिंग संस्थानों में विशेष प्रशिक्षण पाए विद्यार्थी देश के अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों की  प्रवेश परीक्षा में अपना दबदबा बनाये रखते है.
हम सभी को  विचार करना चाहिए की इन सभी निजी कोचिंग संस्थानों का  देश के शैक्षणिक व्यवस्था पर कैसा प्रभाव पड़ता है और विद्यार्थियों के समग्र बौद्धिक विकास में इनकी क्या भूमिका है.

सबसे पहले तो ये स्पष्ट होना चाहिए की इन सभी कोचिंग संस्थानों का मुख्य उद्देश्य छात्रों को तकनीकी प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने के गुर सीखाना मात्र है. अतः इनका विशेष ध्यान विषय के प्रश्नोत्तर व समस्या-समाधान पर अधिक रहता है. यहाँ मुख्यतः तीन विषयों की पढाई होती है – भौतिकी, रसायन एवं गणित (इंजीनियरिंग हेतु ) या जीव शास्त्र (डॉक्टरी/मेडिसिन की प्रवेश परीक्षा हेतु). अन्य सभी महत्वपूर्ण विषय जैसे भाषा, इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र, दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र, कला, कानून, इत्यादि जो हमारे समुचित शैक्षिक कार्यक्रम के अनिवार्य अंग हैं वे वर्तमान प्रतिस्पर्धी परिवेश में उपेक्षित या अछूते रह जाते है.

वृहद् दृष्टिकोण से देखने पर ये व्यवस्था हमारे समाज के सर्वांगीण विकास के लिए कतई हितकारी नहीं है. हमारे राष्ट्र को विदेशी कम्पनीयों/ उन्नत राष्ट्रों  का BPO स्थल बनकर ही संतुष्ट रहना है तब तक तो वर्तमान व्यवस्था ठीक  ठाक चल जायेगी. पर अगर उसके परे जा कर हमें राष्ट्र को नूतन विचार, उर्जा, प्रवीणता एवं उत्पादकता से उन्नत करने हेतु  अपने देश की  भावी पीढ़ी को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना है तो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था इसका दायित्व सँभालने में अक्षम और नाकारा सिद्ध होगी.

सबसे पहले हमें वर्तमान की दकियानूसी शैक्षिक व्यवस्था से बाहर निकलने का मार्ग तलाशना होगा. हमें धीरे धीरे क्रमश आई.आई. टी. जैसी सभी प्रवेश परीक्षाओं से किनारा करते हुए विद्यालयों में कक्षा ८ से कक्षा १२ तक के विद्यार्थियों के  शैक्षणिक योग्यताओं, अभिरुचियों, क्षमताओं और परिणामों के आधार पर उसके उच्चतर शिक्षा (चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो) का मार्ग निकालना होगा. इन कक्षाओं में सभी विषय शिक्षकों का स्वतंत्र और निष्पक्ष आकलन ही विद्यार्थी के समस्त उच्च शिक्षा के संस्थानों में प्रवेश का आधार माना जायेगा.

इसको कार्यान्वित करने के लिए निम्नलिखित सुझावों पर समुचित ध्यान देना आवश्यक होगा:

१. पूरे देश में सभी के लिए कक्षा १२ तक की पढाई निशुल्क कर देना चाहिए. (कुछ नीतिगत परिवर्तन मात्र से यह करना संभव है. हम इस विषय पर भी आने वाले दिनों में विस्तार से विवरण देंगे.)  

२. एक ऐसी कंप्यूटर आधारित डिजिटल प्रणाली का अखिल भारत के परिदृश्य में स्थापना किया जाना होगा जिसमे देश में सभी विद्यालयों में कक्षा ८ से १२ तक में पढ़ रहे सभी विद्यार्थियों की प्रगति और मेधा का समय समय पर विभिन्न विषय शिक्षकों द्वारा वैज्ञानिक व वस्तुनिष्ठ तरीके  से  किया गया निष्पक्ष आकलन पारदर्शी पद्धति से दर्ज होगा. इससे हमें विद्यार्थी की नैसर्गिक अभिरुचि एवं क्षमताओं के बारे में सटीक विवेचना करने में सहायता मिलेगी.

३. इस प्रणाली में छात्र द्वारा विद्यालय में अध्ययनरत वर्षों और उसके द्वारा  शैक्षणिक व्यवस्था में बिताये कुल  समय के बीच  कोई परस्पर बाध्यता नहीं होगी. प्रत्येक विद्यार्थी को अपने रुचि के अनुकूल गति क्रम से अपने अभिरुचि के विषय पर प्रवीणता प्राप्त करने की छूट होगी और ये अतिरिक्त समय उसके शैक्षणिक भविष्य के लिए प्रतिकूल नहीं माना जायेगा.

उदाहरण स्वरुप मान ले कि एक गरीब किसान परिवार में जन्म लेने वाला बेटा या बेटी दिन में खेत में काम करता है और शाम को पढ़ाई करता है. वह बारहवीं की परीक्षा विद्यालय में बारह वर्ष  की पढाई की जगह पंद्रह वर्षों में उत्तीर्ण करता है. इन परिस्थितियों में उसे प्रोत्साहन देना समुचित है क्योंकि शिक्षा का मूल उद्देश्य सबको शिक्षित करना है और निरर्थक नियमों से उसके भविष्य को  बंधन मुक्त करना है.

४. इस पद्धति के अंतर्गत विद्यालयों के विभिन्न विषयों के शिक्षको द्वारा दर्ज कक्षा ८ से कक्षा १२ तक के छात्र के प्रतिभा परिणामों पर उच्च शिक्षा के संस्थानों और कॉलेजों को आकलन करने में सुविधा होगी. इससे माध्यमिक स्तर के विद्यालयों और उच्च शिक्षा के संस्थानों के बीच बेहतर सामंजस्य और तालमेल बनेगा.
इस प्रणाली के लागू होने पर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त कुछ खामियां स्वतः दूर हो जाएँगी, जैसे:

१. विशाल निजी निवेश (२६०,००० करोड़ रुपये) जो अभी कुछ  निजी कोचिंग संस्थानों में जा रहा है  वो अब शिक्षा की मुख्यधारा यानि अच्छे माध्यमिक विद्यालयों में आने लगेगा.  

२. ऐसे प्रतिभा सम्पन्न शिक्षक जो अभी अधिक पैसों के लोभ में इन निजी कोचिंग केन्द्रों में अपनी सेवा दे रहे है वे भी हमारे माध्यमिक शिक्षा के विद्यालयों से जुड़ेंगे और उन्हें बेहतर बनाने में सहायक होंगे.

३. इससे सभी स्तरों पर शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक सुधार आने लगेगा.

४. माध्यमिक शिक्षा हर प्रखंड और ग्राम स्तर पर उपलब्ध होने से और उनकी गुणवत्ता में सुधार होने का सर्वाधिक लाभ देश की सभी लड़कियों को मिलेगा जो अभी मुख्यधारा में अपनी पूरी क्षमता से योगदान देने से वंचित रह जाती है.

हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में तत्परता से  आमूल चूल परिवर्तन करना ही होगा और अपनी वर्षों पुरानी अंग्रेजों द्वारा निर्धारित शिक्षा प्रणाली को बदल कर उसे आधुनिक चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम और देश की  आर्थिक सामाजिक समृधि के लिए सम सामायिक  बनाना  होगा.

तभी हम देश के एक बड़े तबके को मात्र ८ वर्षों के स्कूली शिक्षा के स्तर से ऊपर उठा सकेंगे और जो लोग उससे आगे पढ़ भी  लेते है वो  भी इक्कीसवी सदी की  वैश्विक चुनौतीयों के आगे स्वयं को पिछड़ा पाते है.

यक़ीनन ये देश के भविष्य के लिए एक निराशाजनक चित्र है.
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