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देश की प्राचीन प्राकृतिक संस्कृति और उसमे छिपे प्रकिति को सहेजने के सत्य

Mahendra Pratap Singh

Mahendra Pratap Singh Opinions & Updates

ByMahendra Pratap Singh Mahendra Pratap Singh   {{descmodel.currdesc.readstats }}

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भारत देश की सस्ंकृति वस्तुतः अरण्य सस्ंकृति है। प्राचीन काल में सभी ऋषि मुनि वन क्षेत्रों में ही निवास करते थे। इन ऋषि मुनियों के आश्रम ही उस समय शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। प्रकृति की गोद में स्थित इन्ही आश्रमों से निकल कर ज्ञान का दिव्य प्रकाश पूरे विश्व को आलोकित करता था। सभी विद्यार्थियों को इन्हीं आश्रमों में प्रारम्भिक पाठशाला के स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। वन परिसर में शिक्षा प्राप्त करने के कारण स्वाभाविक रूप से विद्यार्थियों के अन्तःकरण में वनों एवं वन्य जीवों के प्रति एक सहज आत्मीयता का विकास हो जाता था जो आजीवन उन्हें वन्नो एवं वन्य जीवन से जोड़े रहता था। प्राचीन ऋषियों ने कभी प्रकृति को उपभोग की वस्तु नहीं समझा। धरती को उन्होंने मॉं माना- 

माता भूमिः पुत्रोΣ हम् पृथिव्याः। 

यदि हम अतीत पर दृष्टि डालें, तो हम पाते हैं कि वन्यजीवों को हमारे मनीषियों द्वारा परिवार का एक अंग मानते हुए उनकी उपासना की गई। बराह (सुअर), कच्छप (कछुआ), मत्स्य (मछली) एवं नृसिहं (मानव शरीर तथा सिंह का सिर) के रूप में भगवान विष्णु के अवतार का वर्णन आता है। कागभुशुसुण्डि के रूप में कौआ को पूज्य माना गया है जिनके दरबार में भगवान शिव के बार-बार जाने का उल्लेख मिलता है। भगवान राम की सहायता बन्दर तथा भालुओं ने की। गिद्धराज के प्रति आभार व्यक्त कर श्रीराम ने उसे पूज्य बना दिया। सिहं को अतीत में न्याय एवं शक्ति का प्रतीक माना जाता था, इसीलिए राजा के आसन को सिंहासन कहा जाता था। सर्प को भगवान शिव ने गले में धारण किया तथा नन्दी (बलै) उनका वाहन है। भगवान विष्णु का वाहन गरुण, मॉं दुर्गा का वाहन सिंह, इन्द्र का वाहन ऐरावत हाथी, गणेश का वाहन चूहा, लक्ष्मी का वाहन उलूक, सरस्वती का वाहन हंस तथा भैरो का वाहन कुत्ता है। भगवान कृष्ण ने अपने मुकुट में मोर का पंख धारण कर उसे महत्व दिया। पंचतन्त्र में अनेक वन्यजीवों की कथा आती है।

भारतीय संविधान में वन एवं पयार्वरण की रक्षा को विशेष महत्व दिया गया है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-48(क) में दिये गये नीति निर्देशक तत्वों के अनसुर-  

‘‘राज्य, देश के पयार्वरण संरक्षण तथा संवर्धन का एवं वन तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।’’  

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51(क) के खण्ड(छ) के अनुसार प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि-  

‘‘प्राकृतिक पयार्वरण, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, की रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखे।’’   

हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रंगों में भी पयार्वरण संरक्षण का भाव निहित है। राष्ट्रीय ध्वज का हरा रंग हरियाली का द्यातेक है। यह हरा रंग हमें सदैव यह स्मरण दिलाता है कि इस ध्वज के नीचे खड़े होने  वाले तथा इसे सम्मान देने वाले लोग पर्यावरण संरक्षण के प्रति संकल्पबद्ध हैं। हमारा राष्ट्रध्वज आज के प्रमुख युगधर्म की ओर संकेत करते हुए सदैव कर्तव्य बोध कराता रहता है कि हमें प्रत्येक दशा में धरती की हरियाली को बनाए रखना है।

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सर्वपल्ली डा0 राधाकृष्णन ने झण्डे के रंगां की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहा है-    

Bhagwa or the saffron color denotes renunciation of disinterestedness. Our leaders must be indifferent to material gains and dedicate themselves to their work. The white in the center is light, the path of truth to guide our conduct. The green shows our relation to soil, our relation to plant life here on which all our life depends. The Ashoka Wheel in the center of the white is the wheel of the law of dharma. Truth or Satya, dharma or virtue ought to be the controlling principles of those who work under this flag. Again, the wheel denotes motion. There is death in stagnation. There is life in movement. India should no more resist change, it must move and go forward. The Wheel represents the dynamism of a peaceful change.''       

प्राचीन काल में प्रकृति और मानव के बीच भावनात्मक सम्बन्ध था। मानव अत्यन्त कृतज्ञ भाव से प्रकृति के उपहारों को ग्रहण करता था। प्रकृति के किसी भी अवयव को क्षति पहुॅंचाना पाप समझा जाता था। बढ़ती जनसंख्या एवं भौतिक विकास के फलस्वरूप प्रकृति का असीमित विदोहन प्रारम्भ हुआ। भूमि से हमने अपार खनिज सम्पदा, डीजल, पेट्र्राले आदि निकाल कर धरती की कोख को उजाड़ दिया। वृक्षों को काट- काट कर मानव समाज ने धरती को नंगा कर दिया। वन्य जीवों के प्राकृतवास वनों के कटने के कारण वन्यजीव बेघर होते गए। असीमित उद्योगीकरण के कारण लगातार जहर उगलती चिमनियों ने वायुमण्डल को विषाक्त एवं दमघांटे बना दिया। हमारी पावन नदियॉं अब गन्दे नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियां का जल विषाक्त हाने के कारण उसमें रहने वाली मछलियॉं एवं अन्य जलीय जीव तड़प-तड़प कर मर रहे हैं। बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से कानां के परदों पर लगातार घातक प्रभाव पड़ रहा है। लगातार घातक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूमि को उसरीला बनाता जा रहा है। आजेन परत में छेद हो गया है। धरती पर अम्लीय वर्षा का प्रकापे धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है तथा लगातार तापक्रम बढ़ने से पहाड़ों की बर्फ पिघल रही है जिससे धरती का अस्तित्व संकटग्रस्त होता जा रहा है।   

पयार्वरण प्रदूषण आज विभिन्न घातक स्वरूपों में विद्यमान है जो मानव सभ्यता के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। स्थिति यहॉं तक आ गयी है कि सृष्टि का भविष्य संकटग्रस्त है। पयार्वरण प्रदूषण के प्रमुख स्वरूप जैसे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, ओजोन परत में छेद आदि के कुप्रभाव आदि धरती के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रारंभिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा में पयार्वरणीय शिक्षा का समावेश आज की प्रबल सामयिक आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में कतिपय महत्वपूर्ण सुझाव निम्न प्रकार हैं-  

(क) प्रारम्भिक एवं माध्यमिक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण का अध्ययन- 

प्रारम्भिक एवं माध्यमिक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने हेतु अनिवार्य पयार्वरणीय शिक्षा की प्रबल आवश्यकता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के प्रदूषण एवं उनके निदान के प्रति विद्याथिर्यां को संवेदनशील बनाया जाने का प्रयास किया जाना चाहिये। किसी भी विधा में एक शिक्षित युवक को पयार्वरण संरक्षण के प्रति जागरूक बनाया जाना इसका प्रमुख उद्देश्य है। इसके अन्तर्गत जैव विविधता, पयार्वरण प्रदूषण एवं उनके निदान, पयार्वरण संरक्षण से सम्बन्धित विभिन्न अधिनियम, पॉलीथीन के कुप्रभाव एवं अन्य प्रासंगिक जानकारी उपलब्ध कराया जाना चाहिये।

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(ख) उच्च शिक्षा में पयार्वरण संरक्षण का समावेश- 

उच्च शिक्षा में पर्यावरण विज्ञान के सैद्धान्तिक अध्ययन के अतिरिक्त उसके व्यवहारिक उपयोगितावादी दृष्टिकोण पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये। उच्च शिक्षा में पर्यावरणीय शिक्षा का समावेश करते हुये मूल रूप से इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये कि पयार्वरणीय शिक्षा भारत के परिवेश से मेल खाती हो तथा उसका अधिक से अधिक उपयोग विभिन्न स्तरों से पर्यावरण प्रदूषण दूर करने में किया जा सके। यदि विश्वविद्यालय स्तर पर पयार्वरण शिक्षा के अन्तर्गत किये गये गंभीर सैद्धान्तिक शोध केवल पुस्तकालय तक सीमित रह जाते हैं तो वे उपयागे नहीं होगें। इस प्रकार के शोध कार्य को बढ़ावा दिया जाना चाहिये जो विभिन्न प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में सहायक हां तथा जिनकी लागत भी बहुत अधिक न हो। जिस प्रकार विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों में हो रहे अनुसंधानों का प्रयोग कर कृषि उत्पादन में अप्रत्याशित वृद्धि की गयी है उसी प्रकार विश्वविद्यालय स्तर पर पयार्वरण सम्बन्धी इस प्रकार के अध्ययन एवं शोध की आवश्यकता है जो प्रदूषण दूर करने में प्रभावी भूमिका निभा सके। इस दृष्टि से उच्च पयार्वरणीय शिक्षा में निम्न बिंदुओं का समावेश किया जाना प्रभावी होगा-  

1. वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत - 

(i) ईंधन के रूप में लकड़ी के असीमित प्रयोग से वन क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है तथा पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा मिल रहा है। घरों में ईंधन के रूप में एल0पी0जी0 से धरती के अन्दर का पयार्वरण बिगड़ रहा है। इस दिशा में प्रयास करके सौर ऊजा र्या पवन ऊर्जा का प्रयोग कर चूल्हे के विकल्प का प्रयास किया जाना चाहिये।   

 (ii) डीज़ल, पेट्रोल एवं गैस आदि के बढ़ते प्रयागे से धरती के अन्दर का पर्यावरण लगातार प्रदूषित हो रहा है। विभिन्न प्रकार के वाहन की अप्रत्याशित रूप से लगातार बढ़ती समस्या प्रदूषण का प्रमुख कारण है। विश्वविद्यालय स्तर पर वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत पर गंभीर शोध कर इस समस्या का प्रभावी निदान प्रस्तुत किया जा सकता है। इस दिशा में सारै ऊजा र्चालित वाहनों को बेहतर आरै कम लागत के रूप में सामने लाने की दिशा में लगातार शोध की आवश्यकता है।  

(iii) विद्यतु की कमी की समस्या हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में है। विद्यतु निर्माण हेतु असीमित जल का प्रयोग नदियों के प्रदूषित होने का प्रमुख कारण है। विद्यतु के विकल्प के रूप में पवन ऊर्जा के प्रयोग पर लगातार शोध की आवश्यकता है जिससे बेहतर और कम लागत का विकल्प सामने आ सके। सौर ऊर्जा चालित उपकरणों को और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।   

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2. जैविक खेती -

वर्तमान में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकां के अत्यधिक प्रयागे से मृदा प्रदूषण अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहा है। इससे धरती के अन्दर एवं बाहर की जैव विविधता समाप्त हो रही है एवं धरती की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित हो रही है। विश्वविद्यालय स्तर पर गंभीर शोध कर कीटनाशकों एवं रासायनिक खादों के विकल्प पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिये। कृषि विश्वविद्यालयों की प्राथमिकता उत्पादन बढ़ाना है। जबकि कृषि पयार्वरण सम्बन्धी शोध के अन्तर्गत उत्पादन बढ़ने के साथ मृदा प्रदूषण को नियंत्रित करने के प्रयास को प्राथमिकता दी जाने चाहिये।   

3. पॉलीथीन का विकल्प-

पॉलीथीन का बढ़ता प्रयोग सभी स्थानों की मुख्यतः शहरी क्षेत्रों की प्रमुख समस्या है। कुछ राज्यों द्वारा पॉलीथीन के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया गया है जो आंशिक रूप से ही प्रभावी है। पॉलीथीन न हट पाने का मुख्य कारण इसके विकल्प का अभाव है। जो विकल्प बाजार में उपलब्ध है, वे पॉलीथीन थलै की तुलना में अधिक मॅंहगे हैं। विश्व विद्यालय स्तर पर गंभीर शोध करके पॉलीथीन के सस्ते विकल्प हेतु प्रभावी प्रयास किया जाना चाहिये।   

4. उपयाेगता के आधार पर वृक्षारापेण को बढ़ावा देना- 

राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार वनावरण का प्रतिशत 33% होना चाहिये। इसकी तुलना में वनावरण 24.16 प्रतिशत ही है। अथक प्रयास के उपरान्त भी वांछत लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सका है। ग्रामीण कृषकों द्वारा स्वाभाविक रूप से उन्हीं प्रजातियों का रापेण किया जाता है जो उनके लिये उपयोगी हों। विभिन्न उद्योगां हेतु उपयोगी वृक्ष प्रजातियों का भी अध्ययन कर उनके रोपण को बढ़ावा देकर वनावरण को बढ़ावा दिया जा सकता है। इस दिशा में उपयोगिता के आधार पर वृक्ष प्रजातियों का अध्ययन तथा उस पर गंभीर शोध कर उनके उपयोग को बढ़ावा देकर वनीकरण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।  इस दृष्टि से मेरे द्वारा पुस्तक ‘‘वन उपज’’ लिखी गयी है जिसका प्रकाशन ‘‘नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इण्डिया’’ द्वारा किया गया है।   

5. जैव विविधता का संरक्षण-  

‘जैव विविधता’ शब्द मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है- जैविक और विविधता। सामान्य रूप से जैव विविधता का अर्थ जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों से है। प्रकृति में मानव, अन्य जीव जन्तु तथा वनस्पतियों का संसार एक दूसरे से इस प्रकार जुड़ा है कि किसी के भी बाधित हाने से सभी का सन्तुलन बिगड़ जाता है तथा अन्ततः मानव जीवन कुप्रभावित हाते है।   

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