सन २०१२ में प्रकाशित CBS की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका के प्रसिद्ध न्यूयॉर्क नगर में वर्ष भर में नगरपालिका क्षेत्र में उत्सर्जित ७८ लाख टन कचरा निपटान करने के लिए २३ अरब डॉलर की विशाल धनराशि का व्यय किया गया. इस विशाल राशि का अधिकतर हिस्सा (१८ अरब डॉलर) तो करदाताओं द्वारा जमा किये गए राजस्व करों का ही था तथापि कुछ राशि वहां के निजी निवेशकों और फंड्स के द्वारा खर्च की गयी थी. इसमें कचरे को घरों या सड़क के किनारे बने विशेष कचरा स्थलों से प्रतिदिन उठाकर ले जाना और उसमें वैज्ञानिक रूप से निपटाने का व्यय भी शामिल है.
अब हम इसकी तुलना भारत की राजधानी दिल्ली में व्याप्त स्थिति से करते है. दिल्ली की प्रति वर्ग किलोमीटर जनसँख्या (११२९७) और न्यूयॉर्क की प्रति वर्ग किलोमीटर जनसँख्या (१०७५६) लगभग समान है. दिल्ली सरकार द्वारा उसके वेबसाइट में दी गई जानकारी से यह पता चलता है कि वर्ष २०१४-१५ में लगभग 30 लाख टन महानगरीय अपसिष्ट (कचरे) का निपटान उसकी महानगरपालिकाओं द्वारा किया गया और उसमे कुल ३४४ मिलियन डॉलर (यानि आधे अरब से भी कम) व्यय करने का सरकारी प्रावधान रखा गया था. हमने अपने शोध में एक आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति से जाना की दक्षिण दिल्ली की महानगरपालिका द्वारा आलोच्य वर्ष में ६४७ करोड़ रूपये (लगभग १०० मिलियन अमेरिकी डॉलर) का व्यय प्रावधान था और अन्य आधिकारिक आंकड़ों के अभाव में इसी राशि को हमने दिल्ली में कार्यरत अन्य दो महानगरपालिकाओं का भी आधार मान लिया.
दिल्ली और न्यूयॉर्क दो अलग अलग महानगर है और उनकी आधारभूत संरचनाओं में भी भारी अंतर है. न्यूयॉर्क में सभी घरों/मकानों में कचरे को व्यवस्थित रूप से इकठ्ठा करने की सुचारू व्यवस्था वर्षों से बनी हुई है जिसे नगरपालिका के बंद लोर्रियों द्वारा प्लास्टिक के बोरों में बांधकर नगर से दूर ले जाया जाता है. दिल्ली में घरों से कचरा इकठ्ठा करने का काम निजी ठेकेदारों के कर्मचारियों के जिम्में है जो इसे घरों/मोहल्लों से जमा कर के सड़क किनारे एक ढ़ेर में रख देते है और फिर उसे अमूमन खुले ट्रक द्वारा उठा कर नगर से बाहर ले जाया जाता है. प्रस्तुत तस्वीरों से इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच का अंतर स्पष्ट दिखाई देता है.
यहाँ मुद्दा इस बात का तुलनात्मक अध्ययन करना नहीं है कि दोनों नगरों की व्यवस्थाओं में कितना अंतर है. एक विकसित देश का शहर है और दूसरा विकासशील देश का, अतः संरचनात्मक विषमता होना कोई बड़ी बात नहीं है. यहाँ मुख्य रूप से हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि किसी भी नगर को स्वच्छ रखने में और उसके ठोस कचरे को इकट्ठा करके उसका सुचारू रूप से निपटान करने में एक अनिवार्य व्यय होता है. अगर उस मद में अपर्याप्त खर्च राशि से अथवा दकियानूसी तकनीक से काम चलाया जाता है तो उसके दूरगामी परिणाम चिंताजनक होते है. जगह जगह पर नगर में फैले खुले कचरों के ढेर सिर्फ शहर की खूबसूरती में बदनुमा दाग नहीं लगाते है अपितु वहां के भूगर्भीय जल स्त्रोत भी दूषित होते है. कचरे के निपटान के अंतिम क्रम में भूमि भराव क्षेत्र की समुचित वैज्ञानिक व्यवस्था का अभाव होने और वहां कचरे को पूरी तरह से नहीं जला पाने के दुष्परिणाम भी भयावह होते हैं.
अभी तक हमने देखा की एक मोबाइल फ़ोन की लागत में मात्र पूँजी, श्रम खर्च, सरकारी करों आदि को ही जोड़ा जाता है जबकि उसमें प्रयुक्त उर्जा (बिजली/डीजल) के रियायती मूल्य, पर्यावरण क्षतिपूर्ति, उपयोगकाल अवधि के पश्चात उसके निपटान खर्च आदि को लागत में नहीं लिया जाता है. अपितु इसे इ-कॉमर्स के माध्यम से सस्ती से सस्ती कीमत पर बाजारवाद के नाम पर ग्राहक को मुहैया करने के होड़ लगी हुई है.
एक मोबाइल फ़ोन कितनी अवधि तक अपने ग्राहक के उपयोग में काम आता है इसका कोई सार्वभौम नियम तो नहीं है किन्तु हमने एक सीमित सर्वेक्षण में पाया कि अधिकांश युवा औसतन डेढ़ वर्ष में ही अपना मोबाइल सेट बदल लेते है. इसके दो मुख्य कारण थे – या तो फ़ोन ख़राब हो जाता है या उससे बेहतर तकनीक/विशिष्टता का फ़ोन कम कीमत पर बाज़ार में उपलब्ध हो जाता है. नया सेट हाथ में आने के बाद खराब और पुराना मोबाइल फ़ोन अंततः कचरे में फ़ेंक दिया जाता है.
इस तरह से यह चक्र सतत चलता रहता है और गाजीपुर जैसे ही कई जगह कचरे का पहाड़ ऊंचा होता रहता है. आर्थिक प्रगति के नाम पर, जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के नाम पर, उपभोक्तावाद के नाम पर यह क्रम अभी थमता हुआ नज़र नहीं आ रहा है पर प्रश्न है कि इसकी कीमत कौन चुकाएगा? भारत जैसे विकासशील देश में एक तरफ राजस्व करों को कम रखने का दबाव होता है और कर संग्रहण इतना अधिक भी नहीं होता (उपलब्ध साधनों का भी निपुणता/दक्षता से उपयोग का नितांत अभाव भी इसमें शामिल है) कि उससे कचरे का निपटान, पर्यावरण सुरक्षा आदि के समुचित उपाय प्राथमिकता से किया जाये, क्या आने वाले भविष्य में यहाँ के नगरवासी कचरे के विशाल पहाड़ों के बीच जीवन व्यतीत करने को मजबूर होंगे? क्या विज्ञान कपोल कल्पना आधारित फिल्मों में दिखाई जाने वाली तस्वीरें सच होंगी?
इस समस्या का समाधान तलाशना बहुत ज़रूरी है. ये सर्वविदित है कि वर्तमान मुक्त बाज़ार व्यवस्था में मांग और आपूर्ति का तालमेल (या घालमेल) ही अर्थव्यवस्था के मुख्य नियंता है. जिस चीज़ की मांग हो अथवा जिस वस्तु की गुणपरक आपूर्ति संभव हो उसकी खपत कैसे बढ़ाई जाए, इसी चीज़ पर विपणनकर्ता और तिजारत वालों का ध्यान रहता है. इस तरह के अनावश्यक व कृत्रिम प्रलोभन, प्रोत्साह, पेचीदगी इत्यादि से ही बाज़ार के भविष्य की राह प्रायः तय होती रहती है.
अगर बाज़ार में बिकने आई वस्तुओं की गुणवत्ता पर समुचित ध्यान दिया जाए तो लोगों को उसे अल्प अवधि उपयोग के बाद कचरे में फेंकना नहीं पड़ेगा. उचित मूल्य (ना सस्ता ना महंगा) पर रखे गए वस्तु के कीमत पर क्रय करने वाला उपभोक्ता भी उस वस्तु के समुचित दीर्घ उपयोग क्षमता की स्वाभाविक अपेक्षा रखेगा. ग्राहक भी उस वस्तु पर खर्च किये गए पैसों की कीमत वसूलना चाहेगा और सभी उत्पादक गुणवत्ताप्रधान व दीर्घावधि तक उपयोग में आने वाले उत्पाद बनाने को बाध्य होंगे.
वर्तमान परिस्थितयों में किसी वस्तु के बाज़ार में विक्रय होने पर सरकार को सिर्फ परंपरागत लागत मूल्य पर ही कर निर्धारण (VAT या GST) कर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये. आज आवश्यकता इस बात को भी संज्ञान में लेने की है कि उस वस्तु की लागत में रियायती बिजली, रियायती इंधन (डीजल), पर्यावरण में उस उत्पाद निर्माण के कारण हुए प्रतिकूल परिवर्तन को दुरूस्त करने का अतिरिक्त खर्च (अथवा उसके दुष्परिणामों का मुद्रा- मूल्य), उस वस्तु की उपयोग अवधि समाप्त होने पर उसके अवशेष (कचरे) को सुरक्षित निपटान की कीमत आदि को भी उक्त उत्पाद की लागत मूल्य में जोड़कर उस पर भी कर निर्धारण/वसूली को समावेशित करना चाहिए.
भारत सरकार द्वारा उत्पादन और सेवा क्षेत्र से जुड़ी लगभग ७३०० व्यवसायों की एक वृहद् सूची उपलब्ध है (नेशनल इंडस्ट्रियल क्लासिफिकेशन डाटा के अनुसार). अगर इनमें से कुछ चुनिन्दा व्यवसायों/उत्पादों पर समेकित रूप से अध्ययन कर उपरोक्त अमूर्त/अगोचर कीमतों का निर्धारण करते हुए एक प्रयोगात्मक कर ग्राहकों से वसूला जाये और उसके परिणामों की समीक्षा की जाये तो ये भविष्य में पर्यावरण संरक्षा व कचरे के निपटान हेतु संसाधन जुटाने के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होगा. (भारत सरकार ने इसी तरह का कदम बिजली के लिए उपयोग में आने वाले कोयला पर ४०० रुपये प्रति टन का एक पर्यावरण संरक्षा उपकर (सेस) लगाकर किया है).
इस नीति पर विचार करने के लिए इन बिन्दुओं पर गौर करना चाहिए:
1. उस वस्तु के उत्पादन हेतु प्रयुक्त जीवाश्म इंधन (कोयला,पेट्रोल,डीजल आदि) का इंधन के रूप में प्रयोग से उत्पन्न पर्यावरण (वायु,जल,भूमि) पर उसका असर और क्षतिपूर्ति लागत (प्रति इकाई) का मूल्यांकन. अगर क्षतिपूर्ति संभव ना हो तो उसका विस्तृत उल्लेख और व्यापक प्रचार किया जाए.
2. यदि उत्पादन इकाई द्वारा प्रवाही बहाव से नदी का जल अथवा वायु प्रदूषित होती हो तो उसका परिमाण एवं प्रदूषित नदी या वायु को स्वच्छ करने का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
3. उत्पादित वस्तु का उपयोगी जीवनावधि का निर्धारण जिसके बाद वो रद्दी/कचरे में तब्दील हो जायेगी.
4. कचरे अथवा रद्दी में उस उत्पाद के स्थायी निपटान की लागत का मूल्याङ्कन.
5. वैसे गुणवत्तापरक उत्पाद जो दीर्घावधि तक उपयोग में आते हैं उनके उत्पादकों को प्रोत्साहन देते हुए उन्हें कर में छूट देने का प्रावधान होना चाहिए.
हमारे देश को इस बात पर सजग रहना होगा कि हमारे देश में विकसित देशों के अप्रचलित, जीर्ण-शीर्ण उत्पाद आयात ना हो और चीन जैसी अर्थव्यवस्था से सस्ते, अधिशेष अल्पावधि उपयोग के वस्तुओं के निर्बाध आयात के दंश से भी हमें बचना होगा. इसके लिए आवश्यक होगा की हम अपने देश में उत्पादित कतिपय वस्तुओं की गुणवत्ता और उपयोग अवधि का विधिवत मूल्याङ्कन करे. अगर आयातित वस्तु कम गुणवत्ता और अल्प उपयोगी हो तो हम ऐसे नियम बनाये कि इस सच्चाई को उस आयातित वस्तु के साथ ग्राहक को बताना अनिवार्य हो. ऐसे में ग्राहकों में जागरूकता आएगी और सस्ती एवं कम गुणवत्ता वाली (पर सीमित उपयोग अवधि) के वस्तुओं का प्रसार बंद होगा.
आयातित वस्तुओं के कर निर्धारण में भी इस मुद्दे को आधार बनाना होगा कि जो आयातित विदेशी उत्पाद लम्बे समय तक उपभोक्ता के उपयोग में आये अथवा जिसकी गारंटी लम्बी अवधि की हो और उसकी मरम्मत सहजता से देश में हो पाए वैसी वस्तुओं पर आयातकरों की दर कम रखी जाए. हमें समझना होगा की हमारे देश के जमीन विदेशों के कचरे का भूमि भराव क्षेत्र नहीं बनाया जा सकता.
इस समस्या से समाधान के लिए सरकार को जन जागरण अभियान चलाना होगा एवं उपभोक्ता सुरक्षा सम्बन्धी नियमों को धारदार बनाने की आवश्यकता होगी. हमारे उपरोक्त सुझावों को लागू करना कोई बहुत दुष्कर कार्य नहीं है और इसके सम्बंधित अनेक अध्ययन, सर्वेक्षण, आलेख विभिन्न विशेषज्ञ संस्थानों द्वारा समय-समय पर किये गए हैं. जैसे गंगा एक्शन प्लान के लिए और वर्तमान में भूमि भराव क्षेत्रों के लिए भी कई अध्ययन निष्कर्षों का उपयोग इसकी समीक्षा में किया जा सकता है. महत्वपूर्ण यह है कि इन सभी निष्कर्षों को एकत्रित करके और उस पर विहंगम विचार करते हुए लम्बी अवधि की कारगर नीति बनायी जाए.
बैलट बॉक्स इंडिया (BallotBoxIndia) के माध्यम से भारत के आम लोगों और नीति निर्धारको के बीच पर्यावरण सम्बन्धी जायज चिंताओं, विमर्शों एवं सुझावों को ले जाने का प्रयास जारी रखेंगे. हम उन सभी प्रबुद्ध लोगों का भी स्वागत करते है जो हमारे इस अभियान में अपना योगदान करना चाहते है और इस विमर्श को वृहद् बनाना चाहते है. हमारा मानना है कि आर्थिक प्रगति के सभी सूचक (जैसे सकल घरेलु उत्पाद वृद्धि, प्रति व्यक्ति आय आदि) सिर्फ गणितीय आंकड़े है. अगर हम अपने देशवासियों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा, पीने के लिए साफ़ पानी और स्वस्थ वातावरण देने में असमर्थ रहते है तो आर्थिक उन्नति के सारे दावे बेमानी है और हमें अपने अभीष्ट लक्ष्यों पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए.
उदहारण के लिए हमें नीतिगत समीक्षा करनी होगी कि देशवासियों को ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिए दीर्घकालीन पर्यावरण लागत सम्मिलित करते हुए जीवाश्म (कोयला) आधारित बिजलीघर लगाने चाहिए ?
- एवं उसपर आधारित उद्योग ? जो हमारे कौशल एवं युवाओं को सस्ते एवं हानिकारक जैसे प्लास्टिक (पेट्रोलियम के अवशेष) इत्यादि के उत्पाद के लिए प्रशिक्षित करने पर जोर देते हैं,
-या अविष्कार आधारित धारणिया उपक्रमों में, जो शायद आज के जीडीपी के मानकों पर खरे न उतरें मगर सतत समाज की रचना में सहयोग दें.
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